रे, कुछ न हुआ, तो क्या ? जग धोका, तो रो क्या ? सब छाया से छाया, नभ नीला दिखलाया, तू घटा और बढ़ा और गया और आया; होता क्या, फिर हो क्या ? रे, कुछ न हुआ तो क्या ? चलता तू, थकता तू, रुक-रुक फिर बकता तू, कमज़ोरी दुनिया हो, तो कह क्या… Continue reading रे, न कुछ हुआ तो क्या ? / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
रूखी री यह डाल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रुखी री यह डाल ,वसन वासन्ती लेगी. देख खड़ी करती तप अपलक , हीरक-सी समीर माला जप . शैल-सुता अपर्ण – अशना , पल्लव -वसना बनेगी- वसन वासन्ती लेगी. हार गले पहना फूलों का, ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का, स्नेह, सरस भर देगा उर-सर, स्मर हर को वरेगी . वसन वासन्ती लेगी. मधु-व्रत में रत वधू… Continue reading रूखी री यह डाल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नयनों के डोरे लाल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली ! प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली, एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली कली-सी काँटे की तोली ! मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली, खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली– बनी रति की छवि भोली!
प्रिय यामिनी जागी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
(प्रिय) यामिनी जागी। अलस पंकज-दृग अरुण-मुख तरुण-अनुरागी। खुले केश अशेष शोभा भर रहे, पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे, बादलों में घिर अपर दिनकर रहे, ज्योति की तन्वी, तड़ित- द्युति ने क्षमा माँगी। हेर उर-पट फेर मुख के बाल, लख चतुर्दिक चली मन्द मराल, गेह में प्रिय-नेह की जय-माल, वासना की मुक्ति मुक्ता त्याग में तागी।
भारती वन्दना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भारति, जय, विजय करे कनक-शस्य-कमल धरे! लंका पदतल-शतदल गर्जितोर्मि सागर-जल धोता शुचि चरण-युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे! तरु-तण वन-लता-वसन अंचल में खचित सुमन गंगा ज्योतिर्जल-कण धवल-धार हार लगे! मुकुट शुभ्र हिम-तुषार प्राण प्रणव ओंकार ध्वनित दिशाएँ उदार शतमुख-शतरव-मुखरे!
मातृ वंदना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नर जीवन के स्वार्थ सकल बलि हों तेरे चरणों पर, माँ मेरे श्रम सिंचित सब फल। जीवन के रथ पर चढ़कर सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर महाकाल के खरतर शर सह सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर; जागे मेरे उर में तेरी मूर्ति अश्रु जल धौत विमल दृग जल से पा बल बलि कर दूँ… Continue reading मातृ वंदना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सखि, वसन्त आया / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सखि वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया । किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी– पिक-स्वर नभ सरसाया । लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया । आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अंचल पृथ्वी का लहराया ।
रँग गई पग-पग धन्य धरा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रँग गई पग-पग धन्य धरा,— हुई जग जगमग मनोहरा । वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर खुली रूप – कलियों में पर भर स्तर स्तर सुपरिसरा । गूँज उठा पिक-पावन पंचम खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम, सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम वन श्री चारुतरा ।
मौन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए भाषा मूकता की आड़ में, मन सरलता की बाढ़ में, जल-बिन्दु सा बह जाए। सरल अति स्वच्छ्न्द जीवन, प्रात के लघुपात से, उत्थान-पतनाघात से रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।
ध्वनि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अभी न होगा मेरा अन्त अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसन्त- अभी न होगा मेरा अन्त हरे-हरे ये पात, डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर फेरूँगा निद्रित कलियों पर जगा एक प्रत्यूष मनोहर पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, द्वार… Continue reading ध्वनि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”