टूटें सकल बन्ध कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध। रुद्ध जो धार रे शिखर-निर्झर झरे मधुर कलरव भरे शून्य शत-शत रन्ध्र । रश्मि ऋजु खींच दे चित्र शत रंग के, वर्ण-जीवन फले, जागे तिमिर अन्ध ।
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
जग का एक देखा तार / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जग का एक देखा तार । कंठ अगणित, देह सप्तक, मधुर-स्वर झंकार । बहु सुमन, बहुरंग, निर्मित एक सुन्दर हार; एक ही कर से गुँथा, उर एक शोभा-भार । गंध-शत अरविंद-नंदन विश्व-वंदन-सार, अखिल-उर-रंजन निरंजन एक अनिल उदार । सतत सत्य, अनादि निर्मल सकल सुख-विस्तार; अयुत अधरों में सुसिंचित एक किंचित प्यार । तत्त्व-नभ-तम में सकल-भ्रम-शेष,… Continue reading जग का एक देखा तार / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भारति, जय, विजय करे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भारति, जय, विजयकरे ! कनक-शस्य-कमलधरे ! लंका पदतल शतदल गर्जितोर्मि सागर-जल, धोता-शुचि चरण युगल स्तव कर बहु-अर्थ-भरे । तरु-तृण-वन-लता वसन, अंचल में खचित सुमन, गंगा ज्योतिर्जल-कण धवल धार हार गले । मुकुट शुभ्र हिम-तुषार प्राण प्रणव ओंकार, ध्वनित दिशाएँ उदार, शतमुख-शतरव-मुखरे !
बन्दूँ, पद सुन्दर तव / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बन्दूँ, पद सुंदर तव, छंद नवल स्वर-गौरव । जननि, जनक-जननि-जननि, जन्मभूमि-भाषे ! जागो, नव अम्बर-भर, ज्योतिस्तर-वासे ! उठे स्वरोर्मियों-मुखर दिककुमारिका-पिक-रव । दृग-दृग को रंजित कर अंजन भर दो भर– बिंधे प्राण पंचबाण के भी, परिचय शर । दृग-दृग की बँधी सुछबि बाँधें सचराचर भव !
वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वर दे, वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ! वर… Continue reading वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पावन करो नयन ! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रश्मि, नभ-नील-पर, सतत शत रूप धर, विश्व-छवि में उतर, लघु-कर करो चयन ! प्रतनु, शरदिन्दु-वर, पद्म-जल-बिन्दु पर, स्वप्न-जागृति सुघर, दुख-निशि करो शयन !
अनगिनित आ गए शरण में / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अनगिनित आ गए शरण में जन, जननि,– सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि ! स्नेह से पंक-उर हुए पंकज मधुर, ऊर्ध्व-दृग गगन में देखते मुक्ति-मणि ! बीत रे गई निशि, देश लख हँसी दिशि, अखिल के कण्ठ की उठी आनन्द-ध्वनि !
दे, मैं करूँ वरण / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दे, मैं करूँ वरण जननि, दुखहरण पद-राग-रंजित मरण । भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों, मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों, आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण । लांछना इंधन, हृदय-तल जले अनल, भक्ति-नत-नयन मैं चलूँ अविरत सबल पारकर जीवन-प्रलोभन समुपकरण । प्राण संघात के सिन्धु के तीर मैं गिनता रहूँगा न कितने तरंग… Continue reading दे, मैं करूँ वरण / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अस्ताचल रवि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अस्ताचल रवि, जल छलछल-छवि, स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्मन; मंद पवन बहती सुधि रह-रह परिमल की कह कथा पुरातन । दूर नदी पर नौका सुन्दर दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर, वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की बिना गेह की बैठी नूतन । ऊपर शोभित मेघ-छत्र सित, नीचे अमित नील जल दोलित; ध्यान-नयन मन-चिंत्य-प्राण-धन; किया शेष रवि… Continue reading अस्ताचल रवि / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कौन तम के पार ? / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कौन तम के पार ?– (रे, कह) अखिल पल के स्रोत, जल-जग, गगन घन-घन-धार–(रे, कह) गंध-व्याकुल-कूल- उर-सर, लहर-कच कर कमल-मुख-पर, हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर, सर,\ गूँज बारम्बार !– (रे, कह) उदय मेम तम-भेद सुनयन, अस्त-दल ढक पलक-कल तन, निशा-प्रिय-उर-शयन सुख -धान सार या कि असार ?– (रे, कह) बरसता आतप यथा जल कलुष से कृत सुहृत… Continue reading कौन तम के पार ? / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”