तन की, मन की, धन की हो तुम। नव जागरण, शयन की हो तुम। काम कामिनी कभी नहीं तुम, सहज स्वामिनी सदा रहीं तुम, स्वर्ग-दामिनी नदी बहीं तुम, अनयन नयन-नयन की हो तुम। मोह-पटल-मोचन आरोचन, जीवन कभी नहीं जन-शोचन, हास तुम्हारा पाश-विमोचन, मुनि की मान, मनन की हो तुम। गहरे गया, तुम्हें तब पाया, रहीं… Continue reading तन की, मन की, धन की हो तुम / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
भव अर्णव की तरणी तरुणा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भव-अर्णव की तरुणी तरुणा । बरसीं तुम नयनों से करुणा । हार हारकर भी जो जीता,– सत्य तुम्हारी गाई गीता,– हुईं असित जीवन की सीता, दाव-दहन की श्रावण-वरुणा । काटे कटी नहीं जो कारा उसकी हुईं मुक्ति की धारा, वार वार से जो जन हारा । उसकी सहज साधिका अरुणा ।
राजे ने अपनी रखवाली की / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
राजे ने अपनी रखवाली की; किला बनाकर रहा; बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं । चापलूस कितने सामन्त आए । मतलब की लकड़ी पकड़े हुए । कितने ब्राह्मण आए पोथियों में जनता को बाँधे हुए । कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए, लेखकों ने लेख लिखे, ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे, नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे… Continue reading राजे ने अपनी रखवाली की / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा। उन्ही बीजों को नये पर लगे, उन्ही पौधों से नया रस झिरा। उन्ही खेतों पर गये हल चले, उन्ही माथों पर गये बल पड़े, उन्ही पेड़ों पर नये फल फले, जवानी फिरी जो पानी फिरा। पुरवा हवा की नमी बढ़ी, जूही के जहाँ… Continue reading लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बदलीं जो उनकी आँखें / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया। गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया। यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी, मगर खिलकर सुगन्ध से किसी का दिल बहल गया। ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुका, मुश्किल मुकाम, ज़िन्दगी का जब सहल गया। मैंने कला की पाटी ली है शेर के लिए, दुनिया के… Continue reading बदलीं जो उनकी आँखें / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
स्नेह-निर्झर बह गया है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है । आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है-“अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ- जीवन दह गया है ।” “दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर… Continue reading स्नेह-निर्झर बह गया है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
मैं अकेला / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
मैं अकेला; देखता हूँ, आ रही मेरे दिवस की सान्ध्य बेला । पके आधे बाल मेरे हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मन्द होती आ रही, हट रहा मेला । जानता हूँ, नदी-झरने जो मुझे थे पार करने, कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख, कोई नहीं भेला ।
मैं बैठा था पथ पर / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
मैं बैठा था पथ पर, तुम आये चढ़ रथ पर। हँसे किरण फूट पड़ी, टूटी जुड़ गई कड़ी, भूल गये पहर-घड़ी, आई इति अथ पर। उतरे, बढ़ गही बाँह, पहले की पड़ी छाँह, शीतल हो गई देह, बीती अविकथ पर। (1940)
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर, जो द्वार-द्वार फिर कर भीख माँगता कर फैला कर। भूख अगर रोटी की ही मिटी, भूख की जमीन न चौरस पिटी, और चाहता है वह कौर उठाना कोई देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई, द्वार-द्वार फिर कर भीख माँगता कर फैला कर- तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर। देश का, समाज… Continue reading तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
धूलि में तुम मुझे भर दो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
धूलि में तुम मुझे भर दो। धूलि-धूसर जो हुए पर उन्हीं के वर वरण कर दो दूर हो अभिमान, संशय, वर्ण-आश्रम-गत महामय, जाति-जीवन हो निरामय वह सदाशयता प्रखर दो। फूल जो तुमने खिलाया, सदल क्षिति में ला मिलाया, मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो। (1940)