आशा आशा मरे लोग देश के हरे! देख पड़ा है जहाँ, सभी झूठ है वहाँ, भूख-प्यास सत्य, होंठ सूख रहे हैं अरे! आस कहाँ से बंधे? सांस कहाँ से सधे? एक एक दास, मनस्काम कहाँ से सरे? रूप-नाम हैं नहीं, कौन काम तो सही? मही-गगन एक, कौन पैर तो यहाँ धरे?
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
शिविर की शर्वरी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
शिविर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी। ऐसी दशा विश्व की विमल लोचनों देखी, जगा त्रास, हृदय संकोचनों कांपा कि नाची निराशा दिगम्बरी। मातः, किरण हाथ प्रातः बढ़ाया कि भय के हृदय से पकड़कर छुड़ाया, चपलता पर मिली अपल थल की तरी।
लगी लगन, जगे नयन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
लगी लगन, जगे नयन; हटे दोष, छुटा अयन; दुर्मिल जो कुछ ऊर्मिल मिल-मिलकर हुआ अखिल, घुल-घुलकर कुल पंकिल घुला एक रस अशयन। छुटे सभी विषम बन्ध विषमय वासना-अन्ध; संशय की गई गन्ध; शय-निश्चय किया चयन। कामना विलीन हुई,– सभी अर्थ क्षीण हुई, उद्धत शिति दीन हुई, दिखा नवल विश्व-वयन।
बन जाय भले शुक की उक से / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बन जाय भले शुक की उक से, सुख की दुख से अवनी न बनी। रुक जाय चली गति जो जग की, जन से जन-जीवन की न ठनी। बिगड़ी बनती बन जाय सही, डगड़ी गड़ती गड़ जाय मही, कटती पटती पट जाय तही, तन की मन से तनती न तनी। सब लोग भले भिड़ जांय यहाँ,… Continue reading बन जाय भले शुक की उक से / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रमण मन के मान के तन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रमण मन के, मान के तन! तुम्हीं जग के जीव-जीवन! तुम्हीं में है महामाया, जुड़ी छुटकर विश्वकाया; कल्पतरु की कनक-छाया तुम्हारे आनन्द-कानन। तुम्हारी स्वर्सरित बहकर हर रही है ताप दुस्तर; तुम्हारे उर हैं अमर-मर, दिवाकर, शशि, तारकागण। तुम्हीं से ऋतु घूमती है, नये कलि-दल चूमती है, नये आसव झूमती है, नये गीतों, नये नर्तन!
भव-सागर से पार करो हे! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भव-सागर से पार करो हे! गह्वर से उद्धार करो हे! कृमि से पतित जन्म होता है, शिशु दुर्गन्ध-विकल रोता है, ठोकर से जगता-सोता है, प्रभु, उसका निर्वार करो हे! पशुओं से संकुल सन्तुल जग, अहंकार के बाँध बंधा मग, नहीं डाल भी जो बैठे खग, ऐसे तल निस्तार करो हे! विपुल काम के जाल बिछाकर,… Continue reading भव-सागर से पार करो हे! / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दुरित दूर करो नाथ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दुरित दूर करो नाथ अशरण हूँ, गहो हाथ। हार गया जीवन-रण, छोड़ गये साथी जन, एकाकी, नैश-क्षण, कण्टक-पथ, विगत पाथ। देखा है, प्रात किरण फूटी है मनोरमण, कहा, तुम्ही को अशरण- शरण, एक तुम्हीं साथ। जब तक शत मोह जाल घेर रहे हैं कराल– जीवन के विपुल व्याल, मुक्त करो, विश्वगाथ!
पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा| भुक्ति-मुक्ति में गान तुम्हारा। आंख-आंख पर भाव बदलकर, चमके हो रंग-छवि के पलभर, पुनः खोलकर हृदय-कमल कर, गन्ध बने, अभिधान तुम्हारा। विपुल-पुलक-व्याकुल अलि के दल मानव मधु के लिए समुत्कल उठे ज्योति के पंख खमण्डल, अन्तस्तल अभियान तुम्हारा। बैठे हृदयासन स्वतनत्र-मन, किया समाहित रूप-विचिन्तन, नृम्न मृण्मरण बचे विचक्षण, ज्ञान-ज्ञान शुभ… Continue reading पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
समझा जीवन की विजया हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
समझा जीवन की विजया हो। रथी दोषरत को दलने को विरथ व्रती पर सती दया हो। पता न फिर भी मिला तुम्हारा, खोज-खोजकर मानव हारा; फिर भी तुम्हीं एक ध्रुवतारा, नैश पथिक की पिक अभया हो। ऋतुओं के आवर्त-विवर्तों, लिये चलीं जो समतल-गर्तों, खुलती हुई मर्त्य के पर्तों कला सफल तुम विमलतया हो।
भज, भिखारी, विश्व-भरणा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भज भिखारी, विश्वभरणा, सदा अशरण-शरण-शरणा। मार्ग हैं, पर नहीं आश्रय; चलन है, पर निर्दलन-भय; सहित-जीवन मरण निश्चय; कह सतत जय-विजय-रणना। पतित को सित हाथ गहकर जो चलाती हैं सुपथ पर, उन्हीं का तू मनन कर कर पकड़ निश्शर-विश्वतरणा। पार पारावार कर तू, मर विभव से, अमर बर तू, रे असुन्दर, सुघर घर तू, एक तेरी… Continue reading भज, भिखारी, विश्व-भरणा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”