चंग चढ़ी थी हमारी, तुम्हारी डोर न टूटी। आँख लगी जो हमारी, तुम्हारी कोर न छूटी। जीवन था बलिहार, तुम्हारा पार न आया, हार हुई थी हमारी, तुम्हारी जोत न फूटी। ज्ञान गया ऐ हमारा, तुम्हारा मान नया था, हाथ उठा जो हमारा, तुम्हारा रास न लूटी। पैर बढ़े थे हमारे, तुम्हारे द्वार खुले थे,… Continue reading चंग चढी थी हमारी, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
दो सदा सत्संग मुझको / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दो सदा सत्संग मुझको। अनृत से पीछा छुटे, तन हो अमृत का रंग मुझको। अशन-व्यसन तुले हुए हों, खुले अपने ढंग; सत्य अभिधा साधना हो, बाधना हो व्यंग, मुझको। लगें तुमसे तन-वचन-मन, दूर रहे अनंग; बाढ़ के जल बढ़ूं, निर्मल- मिलूं एक उमंग, मुझको। शान्त हों कुल धातुएँ ये, बहे एक तरंग, रूप के गुण… Continue reading दो सदा सत्संग मुझको / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
आँख लगाई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
आंख लगाई तुमसे जब से हमने चैन न पाई। छल जो, प्राणों का सम्बल हुआ, प्राणों का सम्बल निष्कल हुआ, जंगल रमने का मंगल हुआ, ज्योति जहाँ वहाँ अंधेरी घिर आई। राह रही जहाँ वहाँ पन्थ न सूझा, चाह रही जहाँ वहाँ एक न बूझा, ऐसी तलवार चली कुनबा जूझा, बन आई वह कि दूर… Continue reading आँख लगाई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जिनकी नहीं मानी कान / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जिनकी नहीं मानी कान रही उनकी भी जी की। जोबन की आन-बान तभी दुनिया की फीकी। राह कभी नहीं भूली तुम्हारी, आँख से आँख की खाई कटारी, छोड़ी जो बाँधी अटारी-अटारी नई रोशनी, नई तान; रही उनकी भी जी की, जिनकी नहीं मानी कान।
दीप जलता रहा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दीप जलता रहा, हवा चलती रही; नीर पलता रहा, बर्फ गलती रही। जिस तरह आग वन में लगी हुई है,– एकता में सरस भास है–दुई है,– सत्य में भ्रम हुआ है,– छुईमुई है, मान बढ़ता रहा, उम्र ढलती रही। समय की बाट पर, हाट जैसे लगी,– मोल चलता रहा, झोल जैसे दगी,– पलक दल रुक… Continue reading दीप जलता रहा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तुम जो सुथरे पथ उतरे हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तुम जो सुथरे पथ उतरे हो, सुमन खिले, पराग बिखरे, ओ! ज्योतिश्छाय केश-मुख वाली, तरुणी की सकरुण कलिका ली, अधर-उरोज-सरोज-वनाली, अश्रु-ओस की भेंट भरे हो। पवन-मन्द-मृदु-गन्ध प्रवाहित, मधु-मकरन्द, सुमन-सर-गाहित, छन्द-छन्द सरि-तरि उत्साहित, अवनि-अनिल-अम्बर संवरे हो। स्वर्ण-रेणु के उदयाचल-रवि, दुपहर के खरतर ज्योतिशछवि, हे उर-उर के मुखर-मधुर कवि, निःस्व विश्व को तुम्हीं वरे हो।
तिमिर दारण मिहिर दरसो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तिमिरदारण मिहिर दरसो। ज्योति के कर अन्ध कारा- गार जग का सजग परसो। खो गया जीवन हमारा, अन्धता से गत सहारा; गात के सम्पात पर उत्थान देकर प्राण बरसो। क्षिप्रतर हो गति हमारी, खुले प्रति-कलि-कुसुम-क्यारी, सहज सौरभ से समीरण पर सहस्रों किरण हरसों।
सोई अखियाँ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सोईं अँखियाँ: तुम्हें खोजकर बाहर, हारीं सखियाँ। तिमिरवरण हुईं इसलिये पलकों के द्वार दे दिये अन्तर में अकपट हैं बाहर पखियाँ। प्रार्थना, प्रभाती जैसी, खुलें तुम्हारे लिये वैसी, भरें सरस दर्शन से ये कमरखियाँ।
साधो मग डगमग पग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
साधो मग डगमग पग, तमस्तरण जागे जग। शाप-शयन सो-सोकर, हुए शीर्ण खो-खोकर, अनवलाप रो-रोकर हुए चपल छलकर ठग। खोलो जीवन बन्धन, तोलो अनमोल नयन, प्राणों के पथ पावन, रँगो रेणु के रँग रग।
छाँह न छोड़ी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
छांह न छोड़ी, तेरे पथ से उसने आस न तोड़ी। शाख़-शाख़ पर सुमन खिले, हवा-हवा से हिले मिले, उर-उर फिर से भरे, छिले, लेकिन उसने सुषमे, आंख न मोडी। कहीं आव, कहीं है दुराव, कहीं बढ़े चलने का चाव, पाप-ताप लेने का दाव कहीं बढ़े-बढ़े हाथ घात निगोड़ी।