आज प्रथम गाई पिक पंचम। गूंजा है मरु विपिन मनोरम। मस्त प्रवाह, कुसुम तरु फूले, बौर-बौर पर भौंरे झूले, पात-गात के प्रमुदित झूले, छाई सुरभि चतुर्दिक उत्तम। आँखों से बरसे ज्योतिःकण, परसे उन्मन-उन्मन उपवन, खुला धरा का पराकृष्ट तन, फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम। प्रथम वर्ष की पांख खुली है, शाख-शाख किसलयों तुली है, एक और… Continue reading आज प्रथम गाई पिक पंचम / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
अलि की गूँज चली द्रुम कुँजों / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अलि की गूँज चली द्रुम कुँजों। मधु के फूटे अधर-अधर धर। भरकर मुदे प्रथम गुंजित-स्वर छाया के प्राणों के ऊपर, पीली ज्वाल पुंज की पुंजों। उल्टी-सीधी बात सँवरकर काटे आये हाथ उतरकर, बैठे साहस के आसन पर भुज-भुज के गुण गाये गुंजों।
दे न गये बचने की साँस / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दे न गये बचने की साँस, आस ले गये। रह-रहकर मारे पर यौवन के ज्वर के शर नव-नव कल-कोमल कर उठे हुए जो न नये। फागुन के खुले फाग गाये जो सिन्धु-राग दल के दल भरमाये पातों से जो न छये। गले-गले मिलने की, कटी हुई सिलने की, पड़ी हुई झिलने की, आ बीती खड़े-खड़े।
और न अब भरमाओ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
और न अब भरमाओ, पौर आओ, तुम आओ! जी की जो तुमसे चटकी है, बुद्धि-शुद्धि भटकी-भटकी है; और जनों की लट लटकी है? ऐसे अकेले बचाओ, छोड़कर दूर न जाओ। खाली पूरे हाथ गये हैं, ऊपर नये-नये उनये हैं, सुख से मिलें जो दुख-दुनये हैं, बेर न वीर लगाओ, बढ़ाकर हाथ बटाओ!
पैर उठे, हवा चली। / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पैर उठे, हवा चली। उर-उर की खिली कली। शाख-शाख तनी तान, विपिन-विपिन खिले गान, खिंचे नयन-नयन प्राण, गन्ध-गन्ध सिंची गली। पवन-पवन पावन है जीवन-वन सावन है, जन-जन मनभावन है, आशा सुखशयन-पली। दूर हुआ कलुष-भेद, कण्टके निस्पन्ध छेद, खुले सर्ग, दिव्य वेद, माया हो गई भली।
प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल परा-पथ पाथेय पुष्कल। गणित अगणित नूपुरों के, ध्वनित सुन्दर स्वर सुरों के, सुरंजन गुंजन पुरों के, कला निस्तल की समुच्छल। वासना के विषम शर से बिंधे को जो छुआ कर से, शत समुत्सुक उत्स बरसे, गात गाथा हुई उज्जवल। खुली अन्तः किरण सुन्दर, दिखे गृह, वन, सरित, सागर, हँसे खुलकर हार-बाहर,… Continue reading प्रथम बन्दूँ पद विनिर्मल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पार संसार के / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पार संसार के, विश्व के हार के, दुरित संभार के नाश हो क्षार के। सविध हो वैतरण, सुकृत कारण-करण, अरण-वारण-वरण, शरण संचार के। तान वह छेड़ दी, सुमन की, पेड़ की, तीन की, डेढ़ की, तार के हार के! वार वनिता विनत, आ गये तथागत, अप्रहत, स्नेह रत, मुक्ति के द्वार के।
सरल तार नवल गान / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सरल तार, नवल गान, नव-नव स्वर के वितान। जैसे नव ॠतु, नव कलि, आकुल नव-नव अंजलि, गुंजित-अलि-कुसुमावलि, नव-नव-मधु-गन्ध-पान। नव रस के कलश उठे, जैसे फल के, असु के,— नव यौवन के बसु के नव जीवन के प्रदान। उठे उत्स, उत्सुक मन, देखे वह मुक्त गगन, मुक्त धरा, मुक्तानन, मिला दे अदिव्य प्राण।
किशोरी, रंग भरी किस अंग भरी हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
रंगभरी किस अंग भरी हो? गातहरी किस हाथ बरी हो? जीवन के जागरण-शयन की, श्याम-अरुण-सित-तरुण-नयन की, गन्ध-कुसुम-शोभा उपवन की, मानस-मानस में उतरी हो; जोबन-जोबन से संवरी हो। जैसे मैं बाजार में बिका कौड़ी मोल; पूर्ण शून्य दिखा; बाँह पकड़ने की साहसिका, सागर से उर्त्तीण तरी हो; अल्पमूल्य की वृद्धिकरी हो।
नयन नहाये / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नयन नहाये जब से उसकी छबि में रूप बहाये। साथ छुटा स्वजनों की, पाँख फिर गई, चली हुई पहली वह राह घिर गई, उमड़ा उर चलने को जिस पुर आये। कण्ठ नये स्वर से क्या फूटकर खुला! बदल गई आँख, विश्व- रूप वह धुला! मिथ्या के भास सभी, कहाँ समाये!