वेदना बनी, मेरी अवनी। / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वेदना बनी; मेरी अवनी। कठिन-कठिन हुए मृदुल पद-कमल विपद संकल भूमि हुई शयन-तुमुल कण्टकों घनी। तुमने जो गही बांह, वारिद की हुई छांह, नारी से हुईं नाह, सुकृत जीवनी। पार करो यह सागर दीन के लिए दुस्तर, करुणामयि, गहकर कर, ज्योतिर्धमनी।

सुरतरु वर शाखा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सुरतरु वर शाखा खिली पुष्प-भाषा। मीलित नयनों जपकर तन से क्षण-क्षण तपकर तनु के अनुताप प्रखर, पूरी अभिलाषा। बरसे नव वारिद वर, द्रुम पल्लव-कलि-फलभर आनत हैं अवनी पर जैसी तुम आशा। भावों के दल, ध्वनि, रस भरे अधर-अधर सुवश, उघरे, उर-मधुर परस, हँसी केश-पाशा।

निविड़-विपिन, पथ अराल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

निविड़-विपिन, पथ अराल; भरे हिंस्र जन्तु-व्याल। मारे कर अन्धकार, बढ़ता है अनिर्वार, द्रुम-वितान, नहीं पार, कैसा है जटिल जाल। नहीं कहीं सुजलाशय, सुस्थल, गृह, देवालय, जगता है केवल भय, केवल छाया विशाल। अन्धकार के दृढ़ कर बंधा जा रहा जर्जर, तन उन्मीलन निःस्वर, मन्द्र-चरण मरण-ताल।

धीरे धीरे हँस कर आयी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

धीरे धीरे हँसकर आईं प्राणों की जर्जर परछाईं। छाया-पथ घनतर से घनतम, होता जो गया पंक-कर्दम, ढकता रवि आँखों से सत्तम, मृत्यु की प्रथम आभा भाईं। क्या गले लगाना है बढ़कर, क्या अलख जगाना अड़-अड़कर, क्या लहराना है झड़-झड़कर, जैसे तुम कहकर मुस्काईं। पिछले कुल खेल समाप्त हुए, जो नहीं मिले वर प्राप्त हुए, बीसों… Continue reading धीरे धीरे हँस कर आयी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गिरते जीवन को उठा दिया, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

गिरते जीवन को उठा दिया, तुमने कितना धन लुटा दिया! सूखी आशा की विषम फांस, खोलकर साफ की गांस-गांस, छन-छन, दिन-दिन, फिर मास-मास, मन की उलझन से छुटा दिया। बैठाला ज्योतिर्मुख करकर, खोली छवि तमस्तोम हरकर, मानस को मानस में भरकर, जन को जगती से खुटा दिया। पंजर के निर्जर के रथ से, सन्तुलिता को… Continue reading गिरते जीवन को उठा दिया, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! पूछेगा सारा गाँव, बंधु! यह घाट वही जिस पर हँसकर, वह कभी नहाती थी धँसकर, आँखें रह जाती थीं फँसकर, कँपते थे दोनों पाँव बंधु! वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, फिर भी अपने में रहती थी, सबकी सुनती थी, सहती थी, देती थी सबके दाँव, बंधु!

केशर की, कलि की पिचकारी / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

केशर की, कलि की पिचकारी पात-पात की गात संवारी। राग-पराग-कपोल किये हैं, लाल-गुलाल अमोल लिये हैं, तरु-तरु के तन खोल दिये हैं, आरति जोत-उदोत उतारी– गन्ध-पवन की धूप धवारी। गाये खग-कुल-कण्ठ गीत शत, संग मृदंग तरंग-तीर-हत, भजन मनोरंजन-रत अविरत, राग-राग को फलित किया री– विकल-अंग कल गगन विहारी।

फूटे हैं आमों में बौर, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

फूटे हैं आमों में बौर, भौंर वन-वन टूटे हैं। होली मची ठौर-ठौर, सभी बन्धन छूटे हैं। फागुन के रंग राग, बाग-वन फाग मचा है, भर गये मोती के झाग, जनों के मन लूटे हैं। माथे अबीर से लाल, गाल सेंदुर के देखे, आँखें हुई हैं गुलाल, गेरू के ढेले कूटे हैं।