नव जीवन की बीन बजाई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नव जीवन की बीन बजाई। प्रात रागिनी क्षीण बजाई। घर-घर नये-नये मुख, नव कर, भरकर नये-नये गुंजित स्वर, नर को किया नरोत्तम का वर, मीड़ अनीड़ नवीन बजाई। वातायन-वातायन के मुख खोली कला विलोकन-उत्सुक, लोक-लोक आलोक, दूर दुख, आगम-रीति प्रवीण बजाई।

घन तम से आवृत धरणी है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

घन तम से आवृत धरणी है; तुमुल तरंगों की तरणी है। मन्दिर में बन्दी हैं चारण, चिघर रहे हैं वन में वारण, रोता है बालक निष्कारण, विना-सरण-सारण भरणी है। शत संहत आवर्त-विवर्तों जल पछाड़ खाता है पर्तों, उठते हैं पहाड़, फिर गर्तों धसते हैं, मारण-रजनी है। जीर्ण-शीर्ण होकर जीती है, जीवन में रहकर रीती है,… Continue reading घन तम से आवृत धरणी है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नव तन कनक-किरण फूटी है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नव तन कनक-किरण फूटी है। दुर्जय भय-बाधा छूटी है। प्रात धवल-कलि गात निरामय मधु-मकरन्द-गन्ध विशदाशय, सुमन-सुमन, वन-मन, अमरण-क्षय, सिर पर स्वर्गाशिस टूटी है। वन के तरु की कनक-बान की वल्ली फैली तरुण-प्राण की, निर्जल-तरु-उलझे वितान की गत-युग की गाथा छूटी है।

तुम ही हुए रखवाल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तुम ही हुए रखवाल तो उसका कौन न होगा? फूली-फली तरु-डाल तो उसका कौन न होगा? कान पड़ी है खटाई तो उसकी मौन मिताई, और हिये जयमाल तो उसका कौन न होगा? जिसने किया है किनारा उसीका दलबल हारा, और हुए तुम ढाल तो उसका कौन न होगा?

मानव का मन शान्त करो हे / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मानव का मन शान्त करो हे! काम, क्रोध, मद, लोभ दम्भ से जीवन को एकान्त करो हे। हिलें वासना-कृष्ण-तृष्ण उर, खिलें विटप छाया-जल-सुमधुर, गूंजे अलि-गुंजन के नूपुर, निज-पुर-सीमा-प्रान्त करो हे। विहग-विहग नव गगन हिला दे, गान खुले-कण्ठ-स्वर गा दे, नभ-नभ कानन-कानन छा दे, ऐसे तुम निष्क्रान्त करो हे। रूखे-मुख की रेखा सोये, फूट-फूटकर माया रोये,… Continue reading मानव का मन शान्त करो हे / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वे कह जो गये कल आने को / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वे कह जो गये कल आने को, सखि, बीत गये कितने कल्पों। खग-पांख-मढी मृग-आँख लगी, अनुराग जगी दुख के तल्पों। उनकी जो रही, बस की न कही, रस की रसना अशना न रही, विपरीत की टेक न एक सही, दिन बीत चले अल्पों-अल्पों। उनकी जय उर-उर भय भसका, उनके मग में जग-जय मसका, उनके डग… Continue reading वे कह जो गये कल आने को / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तन, मन, धन वारे हैं / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तन, मन, धन वारे हैं; परम-रमण, पाप-शमन, स्थावर-जंगम-जीवन; उद्दीपन, सन्दीपन, सुनयन रतनारे हैं। उनके वर रहे अमर स्वर्ग-धरा पर संचर, अक्षर-अक्षर अक्षर, असुर अमित मारे हैं। दूर हुआ दुरित, दोष, गूंज है विजय-घोष, भक्तों के आशुतोष, नभ-नभ के तारे हैं।

खुल कर गिरती है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

खुल कर गिरती है जो, उड़ती फिरती है। ऐसी ही एक बात चलती है, घात खड़ी-खड़ी हाथ मलती है, तभी सह-सही दाल गलती है (जो)तिरती-तिरती है। काम इशारा नहीं आया तो जैसी माया हो, छाया हो। मुसकाया, मन को भाया जो, उससे सिरती है। विगलित जो हुआ दाप से दर प्राणों को मिला शाप से… Continue reading खुल कर गिरती है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हरि का मन से गुणगान करो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हरि का मन से गुणगान करो, तुम और गुमान करो, न करो। स्वर-गंगा का जल पान करो, तुम अन्य विधान करो, न करो। निशिवासर ईश्वर ध्यान करो, तुम अन्य विमान करो, न करो। ठग को जग-जीवन-दान करो, तुम अन्य प्रदान करो, न करो। दुख की निशि का अवसान करो, उपमा, उपमान करो, न करो। प्रिय… Continue reading हरि का मन से गुणगान करो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आंख बचाते हो तो क्या आते हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आँख बचाते हो तो क्या आते हो? काम हमारा बिगड़ गया देखा रूप जब कभी नया; कहाँ तुम्हारी महा दया? क्या क्या समझाते हो?– आँख बचाते हो। लीक छोड़कर कहाँ चलूं? दाने के बिना क्या तलूं? फूला जब नहीं क्या फलूं? क्या हाथ बटाते हो?– आँख बचाते हो।