तरणि तार दो अपर पार को खे-खेकर थके हाथ, कोई भी नहीं साथ, श्रम-सीकर-भरा माथ, बीच-धार, ओ! पार किया तो कानन; मुरझाया जो आनन, आओ हे निर्वारण, बिपत वार लो। पड़ी भँवर-बीच नाव, भूले हैं सभी दांव, रुकता है नहीं राव– सलिल-सार, ओ!
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
हार गई मैं तुम्हें जगाकर, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
हार गई मैं तुम्हें जगाकर, धूप चढ़ी प्रखर से प्रखरतर। वर्जन के जो वज्र-द्वार हैं, क्या खुलने के भी किंवार हैं? प्राण पवन से पार-पार हैं, जैसे दिनकर निष्कर, निश्शर। पंच विपंची से विहीन हैं; जैसे जन आयु से छीण हैं; सभी विरोधाभास पीन हैं; असमय के जैसे धाराधर।
लघु-तटिनी, तट छाई कलियां;/ सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
लघु-तटिनी, तट छाईं कलियां; गूँजी अलियों की आवलियाँ। तरियों की परियाँ हैं जल पर, गाती हैं खग-कुल-कल-कल-स्वर, तिरती हैं सुख-सुकर पंख-भर, रूम घूमकर सुघर मछलियाँ। जल-थल-नभ आनन्द-भास है, किसी विश्वमय का विकास है, सलिल-अनिल ऊर्मिल विलास है, निस्तल गीति-प्रीति की तलियाँ। परिचय से संचित सारा जग, राग-राग से जीवन जगमग, सुख के उठते हैं पुलकित… Continue reading लघु-तटिनी, तट छाई कलियां;/ सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तार-तार निकल गये / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तार-तार निकल गये (अपूर्ण)
प्रिय के हाथ लगाये जागी, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
प्रिय के हाथ लगाये जागी, ऐसी मैं सो गई अभागी। हरसिंगार के फूल झर गये, कनक रश्मि से द्वार भर गये, चिड़ियों के कल कण्ठ मर गये, भस्म रमाकर चला विरागी। शिशु गण अपने पाठ हुए रत, गृही निपुण गृह के कर्मों नत, गृहिणी स्नान-ध्यान को उद्यत, भिक्षुक ने घर भिक्षा माँगी।
छोड़ दो, न छेड़ो टेढ़े, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
छोड़ दो, न छेड़ो टेढ़े, कब बसे तुम्हारे खेड़े? यह राह तुम्हारी कब की जिसको समझे हम सब की? गम खा जाते हैं अब की, तुम ख़बर करो इस ढब की, हम नहीं हाथ के पेड़े। सब जन आते जाते हैं, हँसते हैं, बतलाते हैं, आपस में इठलाते हैं, अपना मन बहलाते हैं, तुमको खेने… Continue reading छोड़ दो, न छेड़ो टेढ़े, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कौन गुमान करो जिन्दगी का? / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कौन गुमान करो जिन्दगी का? जो कुछ है कुल मान उन्हीं का। बाँधे हुए घर-बार तुम्हारे, माथे है नील का टीका, दाग़-दाग़ कुल अंग स्याह हैं रंग रहा है फीका– तुम्हारा कोई न जी का। एक भरोसा, एक सहारा, वारा-न्यारा बन्दगी का, ज्ञान गठा कब, मान हुआ कब, ध्यान गया जब पी का, बना कब… Continue reading कौन गुमान करो जिन्दगी का? / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कुंज-कुंज कोयल बोली है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कुंज-कुंज कोयल बोली है, स्वर की मादकता घोली है। कांपा है घन पल्लव-कानन, गूँजी गुहा श्रवण-उन्मादन, तने सहज छादन-आच्छादन, नस ने रस-वशता तोली है। गृह-वन जरा-मरण से जीकर प्राणों का आसव पी-पीकर झरे पराग-गन्ध-मधु-शीकर, सुरभित पल्लव की चोली है। तारक-तनु रवि के कर सिंचित, नियमित अभिसारक जीवित सित, आमद-पद-भर मंजु-गुंजरित अलिका की कलिका डोली है।
अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है। कहीं साँस लेते हो, घर-घर भर देते हो, उड़ने को नभ में तुम पर-पर कर देते हो, आँख हटाता हूँ तो हट नहीं रही है। पत्तों से लदी डाल कहीं हरी, कहीं लाल, कहीं पड़ी है उर में, मंद – गंध-पुष्प माल, पाट-पाट… Continue reading अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
हार तुमसे बनी है जय, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
हार तुमसे बनी है जय, जीत की जो चक्षु में क्षय। विषम कम्पन बली के उर, सदुन्मोचन छली के पुर, कामिनी के अकल नूपुर, भामिनी के हृदय में भय। रच गये जो अधर अनरुण, बच गये जो विरह-सकरुण, अनसुने जो सच गये सुन, जो न पाया, मिला आशय। क्षणिकता चिर-धनिक की है, पणिकता जग-वणिक की… Continue reading हार तुमसे बनी है जय, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”