गोरे अधर मुस्काई हमारी वसन्त विदाई । अंग-अंग बलखाई हमारी वसन्त विदाई । परिमल के निर्झर जो बहे ये, नयन खुले कहते ही रहे ये- जग के निष्ठुर घात सहे ये, बात न कुछ बन पाई, कहाँ से कहाँ चली आई । भाल लगा ऊषा का टीका, चमका सहज संदेसा पी का, छूटा भय-पतिपावन जी… Continue reading गोरे अधर मुस्काई / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
तपी आतप से जो सित गात / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तपी आतप से जो सित गात, गगन गरजे घन, विद्युत पात। पलटकर अपना पहला ओर, बही पूर्वा छू छू कर छोर; हुए शीकर से निश्शर कोर, स्निग्ध शशि जैसे मुख अवदात।
चलीं निशि में तुम, आईं प्रात / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
चलीं निशि में तुम आई प्रात; नवल वीक्षण, नवकर सम्पात, नूपुर के निक्वण कूजे खग, हिले हीरकाभरण, पुष्प मग, साँस समीरण, पुलकाकुल जग, हिले पग जलजात।
तपन से घन, मन शयन से; / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तपन से घन, मन शयन से, प्रातजीवन निशि-नयन से। प्रमद आलस से मिला है, किरण से जलरुह किला है, रूप शंका से सुघरतर अदर्शित होकर खिला है, गन्ध जैसे पवन से, शशि रविकरों से, जन अयन से।
मां, अपने आलोक निखारो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
माँ अपने आलोक निखारो, नर को नरक-त्रास से वारो। विपुल दिशावधि शून्य वगर्जन, व्याधि-शयन जर्जर मानव मन, ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन करुणाकरों उतारो, तारो। पल्लव में रस, सुरभि सुमन में, फल में दल, कलरव उपवन में, लाओ चारु-चयन चितवन में, स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।
तुम्हारी छांह है, छल है; / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तुम्हारी छांह है, छल है, तुम्हारे बाल हैं, बल है। दृगों में ज्योति है, शय है, हृदय में स्पन्द है, भय है। गले में गीत है, लय है, तुम्हारी डाल है, फल है। उरोरुह राग है, रति है, प्रभा है, सहज परिणति है, सुतनुता छन्द है, यति है, कमल है, जाल है, जल है।
किरणों की परियां मुसका दीं। / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
किरणों की परियाँ मुसका दों। ज्योति हरी छाया पर छा दी। परिचय के उर गूंजे नूपुर, थिर चितवन से चिर मिलनातुर, विष की शत वाणी से विच्छुर, गांस गांस की फांस हिला दीं। प्राणों की अंजलि से उड़कर, छा छा कर ज्योर्तिमय अम्बर, बादल से ॠतु समय बदलकर, बूंदो से वेदना बिछा दीं। पादप-पादप को… Continue reading किरणों की परियां मुसका दीं। / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
घन आये घनश्याम न आये। / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
घन आये घनश्याम न आये। जल बरसे आँसू दृग छाये। पड़े हिंडोले, धड़का आया, बढ़ी पैंग, घबराई काया, चले गले, गहराई छाया, पायल बजे, होश मुरझाये। भूले छिन, मेरे न कटे दिन, खुले कमल, मैंने तोड़े तिन, अमलिन मुख की सभी सुहागिन, मेरे सुख सीधे न समाये।
बीन वारण के वरण धन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बीन वारण के वरण घन, जो बजी वर्षित तुम्हारी, तार तनु की नाचती उतरी, परी, अप्सरकुमारी। लूटती रेणुओं की निधि, देखती निज देश वारिधि, बह चली सलिला अनवसित ऊर्मिला, जैसे उतारी। चतुर्दिक छन-छन, छनन-छन, बिना नूपुर के रणन-रण, वीचि के फिर शिखर पर, फिर गर्त पर, फिर सुध बिसारी।
गगन गगन है गान तुम्हारा, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
गगन गगन है गान तुम्हारा, घन घन जीवनयान तुम्हारा। नयन नयन खोले हैं यौवन, यौवन यौवन बांधे सुनयन, तन तन मन साधे मन मन तन, मानव मानव मान तुम्हारा। क्षिति को जल, जल को सित उत्पल, उत्पल को रवि, ज्योतिर्मण्डल, रवि को नील गगनतल पुष्कल, विद्यमान है दान तुम्हारा। बालों को क्रीड़ाप्रवाल हैं, युवकों को… Continue reading गगन गगन है गान तुम्हारा, / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”