नील नयन, नील पलक / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

नील नयन, नील पलक; नील वदन, नील झलक । नील-कमल-अमल-हास केवल रवि-रजत भास नील-नील आस-पास वारिद नव-नील छलक । नील-नीर-पान-निरत, जगती के जन अविरत, नील नाल से आनत, तिर्यक-अति-नील अलक ।

हे मानस के सकाल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

हे मानस के सकाल ! छाया के अन्तराल ! रवि के, शशि के प्रकाश, अम्बर के नील भास, शारदा घन गहन-हास, जगती के अंशुमाल । मानव के रूप सुघर, मन के अतिरेक अमर, निःस्व विश्व के सुन्दर, माया के तमोजाल ।

सुख का दिन डूबे डूब जाए / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सुख का दिन डूबे डूबे जाए । तुमसे न सहज मन ऊब जाए । खुल जाए न मिली गाँठ मन की, लुट जाए न उठी राशि धन की, धुल जाए न आन शुभानन की, सारा जग रूठे रूठ जाए । उलटी गति सीधी हो न भले, प्रति जन की दाल गले न गले, टाले न… Continue reading सुख का दिन डूबे डूब जाए / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

दुखता रहता है अब जीवन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

दुखता रहता है अब जीवन; पतझड़ का जैसा वन-उपवन । झर-झर कर जितने पत्र नवल कर गए रिक्त तनु का तरुदल, हैं चिह्न शेष केवल सम्बल, जिनसे लहराया था कानन । डालियाँ बहुत-सी सूख गईं, उनकी न पत्रता हुई नई, आधे से ज़्यादा घटा विटप, बीज जो चला है ज्यों क्षण-क्षण । यह वायु वसन्ती… Continue reading दुखता रहता है अब जीवन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अरघान की फैल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अरघान की फैल, मैली हुई मालिनी की मृदुल शैल। लाले पड़े हैं, हजारों जवानों कि जानों लड़े हैं; कहीं चोट खाई कि कोसों बढ़े हैं, उड़ी आसमाँ को खुरीधूल की गैल- अरघान की फैल। काटे कटी काटते ही रहे तो, पड़े उम्रभर पाटते ही रहे तो, अधूरी कथाओं, करारी व्यथाओं, फिरा दीं जबानें कि ज्यों… Continue reading अरघान की फैल / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मरा हूँ हज़ार मरण / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

मरा हूँ हजार मरण पाई तब चरण-शरण । फैला जो तिमिर जाल कट-कटकर रहा काल, आँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण । जल-कलकल-नाद बढ़ा अन्तर्हित हर्ष कढ़ा, विश्व उसी को उमड़ा, हुए चारु-करण सरण ।

सीधी राह मुझे चलने दो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सीधी राह मुझे चलने दो| अपने ही जीवन फलने दो। जो उत्पात, घात आए हैं, और निम्न मुझको लाए हैं, अपने ही उत्ताप बुरे फल, उठे फफोलों से गलने दो। जहाँ चिन्त्य हैं जीवन के क्षण, कहाँ निरामयता, संचेतन? अपने रोग, भोग से रहकर, निर्यातन के कर मलने दो। रचनाकाल=7 दिसम्बर, 1952

दुख भी सुख का बन्धु बना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

दुख भी सुख का बन्धु बना पहले की बदली रचना । परम प्रेयसी आज श्रेयसी, भीति अचानक गीति गेय की, हेय हुई जो उपादेय थी, कठिन, कमल-कोमल वचना । ऊँचा स्तर नीचे आया है, तरु के तल फैली छाया है, ऊपर उपवन फल लाया है, छल से छुट कर मन अपना । रचनाकाल : 7… Continue reading दुख भी सुख का बन्धु बना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

यह संसार सभी बदला है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

ऊँट-बैल का साथ हुआ है; कुत्ता पकड़े हुए जुआ है। यह संसार सभी बदला है; फिर भी नीर वही गदला है, जिससे सिंचकर ठण्डा हो तन, उस चित-जल का नहीं सुआ है। रूखा होकर ठिठुर गया है; जीवन लकड़ी का लड़का है, खोले कोंपल, फले फूलकर तरु-तल वैसा नहीं कुआँ है। रचनाकाल=15 दिसम्बर, 1952

पद्मा के पद को पाकर हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

पद्मा के पद को पाकर हो सविते, कविता को यह वर दो। वारिज के दृग रवि के पदनख निरख-निरखकर लहें अलख सुख; चूर्ण-ऊर्मि-चेतन जीवन रख हृदय-निकेतन स्वरमय कर दो। एक दिवस के जीवन में जय, जरा-मरण-क्षय हो निस्संशय, जागे करुँणा, अक्षतपश्चय, काल एक को सुकराकर हो। मेरी अलक धूलिपग पोंछे, श्रम शरीर का पलक अँगोछे,… Continue reading पद्मा के पद को पाकर हो / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”