चाक कर कर के गिरेबाँ रोज़ सीना चाहिए / ‘शकील’ ग्वालिअरी

चाक कर कर के गिरेबाँ रोज़ सीना चाहिए ज़िंदगी को ज़िंदगी की तरह जीना चाहिए ख़ुद-कुशी के टल गए लम्हे तो सोचा मुद्दतों ये ख़याल आया ही क्यूँ था ज़हर पीना चाहिए मशवरा मौजों से लूँ उस पार जाना है मुझे ना-ख़ुदाओं का तो कहना है सफ़ीना चाहिए बा-सलीका लोग भी हैं बे-सलीका लोग भी… Continue reading चाक कर कर के गिरेबाँ रोज़ सीना चाहिए / ‘शकील’ ग्वालिअरी

आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए / ‘शकील’ ग्वालिअरी

आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए ऐ ग़म-ए-इश्‍क तिरी उम्र बढ़ा दी जाए मौसम-ए-ख़ंदा-ए-गुल है तो ज़बाँ बंद रक्खें बात अपनी भी हँसी में न उड़ा दी जाए इश्‍वा-ए-नाज़-ओ-अदा जौर ओ जफ़ा मक़ ओ दग़ा कैसे जी लें जो रह इक बात भुला दी जाए उस के ग़म ही से है हर दर्द… Continue reading आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए / ‘शकील’ ग्वालिअरी