Nand Kishore Acharya Archive
छैनी की हर चोट छील देती है मुझको और उभार देती है रूप तुम्हारा तुम्हारा रूप है जो छिलना है मेरा ।
कोई पर्याय नहीं होता किसी संज्ञा का सर्वनाम हो सकता है किसी का भी संज्ञा नहीं मिलती किसी से सर्वनाम घुल जाते एक-दूसरे में जैसे मैं और तुम हो सकते मिलकर हम काटती है संज्ञा जोड़ते हैं सर्वनाम इसीलिए बस …
भरी है गोद धरती की झरे पत्तों के दुख से : उसी टीस का उठना है टेसू जंगल को लपट-सा करता ।
कभी देखी हैं सूने स्टेशनों पर पटरियाँ जो नहीं ले जातीं किसी को कहीं पड़ी रहती हैं केवल वहीं उजड़ा हुआ डिब्बा कभी कोई आ खड़ा होता है वहाँ कुछ वक़्त कोई हमेशा ही खड़ा रहता है– आसरा किसी बेघर …
एक फूल में सारा सहरा खिल आता जैसे एक खिलखिलाहट में सारा जीवन एक पात में झर जाता सारा जंगल जैसे एक सुबक में सारा जीवन ।
क्या चीज़ें वही होती हैं अंधेरों में उजालों में होती हैं जैसी? ख़ुद अपने से पूछो : मैं क्या वही होता हूँ तुम्हारे उजालों से जब आता हूँ ख़ुद के अंधेरों में !
एक कविता सुनाई पानी ने चुपके से धरती को सूरज ने सुन लिया उसको हो गया दृश्य उसका हवा भी कहाँ कम थी ख़ुशबू हो गई छूकर लय हो गया आकाश गा कर उसे एक मैं ही नहीं दे पाया …