हर बार शब्द होठों पर आकर लौट जाते हैं कितने निर्जीव और अर्थहीन हो उठते हैं हमारे आपसी सम्बन्ध, एक ठण्डा मौन जमने लगता है हमारी साँसों में और बेजान-सी लगने लगती हैं आँखों की पुतलियाँ ! कितनी उदास और अनमनी हो उठती हो तुम एकाएक कितनी भाव-शून्य अपने एकान्त में, हमने जब भी आंगन… Continue reading हर बार / नंद भारद्वाज
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एक आत्मीय अनुरोध / नंद भारद्वाज
कहवाघरों की सर्द बहसों में अपने को खोने से बेहतर है घर में बीमार बीबी के पास बैठो, आईने के सामने खड़े होकर उलझे बालों को सँवारो – अपने को आँको, थके-हारे पड़ौसी को लतीफ़ा सुनाओ बच्चों के साथ साँप-सीढ़ी खेलो – बेफ़िक्र फिर जीतो चाहे हारो, कहने का मकसद ये कि खुद को यों… Continue reading एक आत्मीय अनुरोध / नंद भारद्वाज