कहा सौमित्रि ने–“हे तात सुनिये, उचित-अनुचित हृदय में आप गुनिए। कि मँझली माँ हमें वन भेजती हैं। भरत के अर्थ राज्य सहेजती हैं।” निरख कर सामने ज्यों साँप भारी, सहम जावे अचानक मार्गचारी। सचिववर रह गये त्यों भ्रान्त होकर, रुका निश्वास भी क्या श्रान्त होकर! सँभल कर अन्त में इस भाँति बोले- कि “आये खेत… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ५
Category: Maithili Sharan Gupt Poet
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ४
कहाँ है हा! तुम्हारा धैर्य वह सब, कि कौशिक-संग भेजा था मुझे जब। लड़कपन भूल लक्ष्मण का सदय हो, हमारा वंश नूतन कीर्तिमय हो। क्षमा तुम भी करो सौमित्र को माँ! न रक्खो चित्त में उस चित्र को माँ! विरत तुम भी न हो अब और भाई! अरे, फिर तात ने संज्ञा गँवाई! रहूँगा मैं… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ४
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ३
बड़ों की बात है अविचारणीया, मुकुट-मणि-तुल्य शिरसा धारणीया। वचन रक्खे बिना जो रह न सकते, तदपि वात्सल्य-वश कुछ कह न सकते, उन्हीं पितृदेव का अपमान लक्ष्मण? किया है आज क्या कुछ पान लक्ष्मण! उऋण होना कठिन है तात-ऋण से; अधिक मुझको नहीं है राज्य तृण से। मनःशासक बनों तुम, हठ न ठानो, अखिल संसार अपना… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ३
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ २
करो तुम धैर्य-रक्षा, वेश रक्षा, करूँगा क्या न मैं आदेश-रक्षा? मुझे यह इष्ट है, चिन्तित न हो तुम, पडूँ मैं आग में भी जो कहो तुम! तुम्हीं हो तात! परमाराध्य मेरे, हुए सब धर्म अब सुखसाध्य मेरे। अभी सबसे बिदा होकर चला मैं, करूँ क्यों देर शुभ विधि में भला मैं?” हुए प्रभु मौन आज्ञा… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ २
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ १
तृतीय सर्ग जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे, मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे, वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े यों, खड़े ही रह गये सब थे खड़े ज्यों। करें कब क्या, इसे बस राम जानें, वही अपने अलौकिक काम जानें। कहाँ है कल्पने! तू देख आकर, स्वयं ही सत्य हो यह गीत गाकर। बिदा होकर प्रिया… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ १
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ६
अथवा कुछ भी न हो वहाँ, तुम तो हो जो नहीं यहाँ। मेरी यही महामति है– पति ही पत्नी की गति है। नाथ! न भय दो तुम हमको, जीत चुकी हैं हम यम को। सतियों को पति-संग कहीं– वन क्या, अनल अगम्य नहीं!” सीता और न बोल सकीं, गद्गद कंठ न खोल सकीं। इधर उर्मिला… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ६
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ५
“हाथ हटा, ये वल्कल हैं, मृदुतम तेरे करतल हैं। यदि ये छू भी जावेंगे– तो छाले पड़ आवेंगे! कोसल बधू! विदेह लली! मुझे छोड़ कर कहाँ चली? वन की काँटों-भरी गली, तू है मानस-कुसुम-कली। दैव! हुआ तू वाम किसे? रोको, रोको राम! इसे। क्या यह वन में रह लेगी? तप-वर्षा-हिम सह लेगी? सौ कष्टों की… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ५
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ४
धैर्य सहित सब कुछ सहना, दोनों सिंह-सदृश रहना। लक्ष्मण! तू बड़भागी है, जो अग्रज-अनुरागी है। मन ये हों, तन तू वन में, धन ये हों, जन तू वन में।” लक्ष्मण का तन पुलक उठा, मन मानों कुछ कुलक उठा। माँ का भी आदेश मिला, पर वह किसका हृदय हिला? कहा उर्मिला ने–“हे मन! तू प्रिय-पथ… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ४
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ३
माँ ने पुत्र-वृद्धि चाही, नृप ने सत्य-सिद्धि चाही। मँझली माँ पर कोप करूँ? पुत्र-धर्म का लोप करूँ? तो किससे डर सकता हूँ? तुम पर भी कर सकता हूँ। भैया भरत अयोग्य नहीं, राज्य राम का भोग्य नहीं। फिर भी वह अपना ही है, यों तो सब सपना ही है। मुझको महा महत्व मिला, स्वयं त्याग… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ३
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ २
प्रभु बोले–“माँ! भय न करो, एक अवधि तक धैर्य धरो। मैं फिर घर आ जाऊँगा, वन में भी सुख पाऊँगा।” “हा! तब क्या निष्कासन है? यह कैसा वन-शासन है? तू सब का जीवन-धन है, किसका यह निर्दयपन है? क्या तुझसे कुछ दोष हुआ? जो तुझ पर यह रोष हुआ। अभी प्रार्थिनी मैं हूँगी, प्रभु से… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ २