कबीर दोहावली / पृष्ठ ६

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ ६

कबीर दोहावली / पृष्ठ ५

अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर । सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार । ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥ कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ । जब लग आस सरीर… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ ५

कबीर दोहावली / पृष्ठ ४

सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । पाका कलस कुंभार का,… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ ४

कबीर दोहावली / पृष्ठ ३

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । सहजै सब विधि पाइये, जो… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ ३

कबीर दोहावली / पृष्ठ २

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । दुर्जन कुम्भ कुम्हार के,… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ २

कबीर दोहावली / पृष्ठ १

दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥ तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥ माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन… Continue reading कबीर दोहावली / पृष्ठ १