माया कौ अंग / साखी / कबीर

जग हठवाड़ा स्वाद ठग, माया बेसाँ लाइ। रामचरण नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ॥1॥ टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है- कबीर जिभ्या स्वाद ते, क्यूँ पल में ले काम। अंगि अविद्या ऊपजै, जाइ हिरदा मैं राम॥2॥ कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि। सब जग तो फंधै पड़ा, गया कबीरा काटि॥2॥ कबीर माया पापणीं,… Continue reading माया कौ अंग / साखी / कबीर

सूषिम जनम कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल। कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥ प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ। जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥ टिप्पणी: ख-में इसके आगे ये दोहे हैं- कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि। उपजित उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥ कबीर संसा दूरि करि,… Continue reading सूषिम जनम कौ अंग / साखी / कबीर

सूषिम मारग कौ अंग / साखी / कबीर

कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ। उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥ उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ। इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥ टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है- कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ। नाँनाँ बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥ सबकूँ बूझत मैं… Continue reading सूषिम मारग कौ अंग / साखी / कबीर

मन कौ अंग / साखी / कबीर

मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि। ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥ टिप्पणी: ख तेरा तार ज्यूँ। चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ। इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥ टिप्पणी: ख-परस निबारिए। आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति। जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥ कबीर सेरी साँकड़ी… Continue reading मन कौ अंग / साखी / कबीर

चितावणी कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर नौबति आपणी, दिन दस लेहु बजाइ। ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥ जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि। एकै हरि के नाँव बिन, गए जन्म सब हारि॥2॥ ढोल दमामा दड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि। औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥3॥ सातो सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग। ते मंदिर… Continue reading चितावणी कौ अंग / साखी / कबीर

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर प्रीतडी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत। जे हँसि बोलौं और सौं, तौं नील रँगाउँ दंत॥1॥ नैना अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेउँ। नाँ हौं देखौं और कूं, नाँ तुझ देखन देउँ॥2॥ मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा॥3॥ कबीर रेख स्यंदूर की,… Continue reading निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग / साखी / कबीर

लै कौ अंग / साखी / कबीर

जिहि बन सोह न संचरै, पंषि उड़ै नहिं जाइ। रैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रह्या ल्यो आइ॥1॥ सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार। कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारंबार॥2॥ टिप्पणी: ख-खमन चित। गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट। तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥3॥182॥

हैरान कौ अंग / साखी / कबीर

पंडित सेती कहि रहे, कह्या न मानै कोइ। ओ अगाध एका कहै, भारी अचिरज होइ॥1॥ बसे अपंडी पंड मैं, ता गति लषै न कोइ। कहै कबीरा संत हौ, बड़ा अचम्भा मोहि॥2॥179॥

जर्णा कौ अंग / साखी / कबीर

भारी कहौं त बहु डरौ, हलका कहूँ तो झूठ। मैं का जाँणौं राम कूं, नैनूं कबहुं न दीठ॥1॥ टिप्पणी: क-हलवा कहूँ। दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ। हरि जैसा है तैसा रहौ, तूं हरिषि हरिषि गुण गाइ॥2॥ ऐसा अद्भूत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ बेद कुरानों गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ॥3॥… Continue reading जर्णा कौ अंग / साखी / कबीर

लांबि कौ अंग / साखी / कबीर

कया कमंडल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर। तन मन जोबन भरि पिया, प्यास न मिटी सरीर॥1॥ मन उलट्या दरिया मिल्या, लागा मलि मलि न्हांन। थाहत थाह न आवई, तूँ पूरा रहिमान॥2॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। बूँद समानी समंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥3॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। समंद समाना… Continue reading लांबि कौ अंग / साखी / कबीर