कौन ठगवा नगरिया लूटल हो / कबीर

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।। चंदन काठ के बनल खटोला ता पर दुलहिन सूतल हो। उठो सखी री माँग संवारो दुलहा मो से रूठल हो। आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा नैनन अंसुवा टूटल हो चार जाने मिल खाट उठाइन चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो कहत कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता… Continue reading कौन ठगवा नगरिया लूटल हो / कबीर

उपदेश का अंग / कबीर

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार ॥1॥ भावार्थ – बैरागी वही अच्छा, जिसमें सच्ची विरक्ति हो, और गृहस्थ वह अच्छा, जिसका हृदय उदार हो । यदि वैरागी के मन में विरक्ति नहीं, और गृहस्थ के मन में उदारता नहीं, तो दोनों का ऐसा पतन होगा… Continue reading उपदेश का अंग / कबीर

सम्रथाई का अंग / कबीर

जिसहि न कोई तिसहि तू, जिस तू तिस ब कोइ । दरिगह तेरी सांईयां , ना मरूम कोइ होइ ॥1॥ भावार्थ – जिसका कहीं भी कोई सहारा नहीं, उसका एक तू ही सहारा है । जिसका तू हो गया, उससे सभी नाता जोड़ लेते हैं साईं ! तेरी दरगाह से, जो भी वहाँ पहुँचा, वह… Continue reading सम्रथाई का अंग / कबीर

जीवन-मृतक का अंग / कबीर

`कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर ,कबीर ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं -मेरा मन जब मर गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब, हरि मेरे पीछे लगे फिरने मेरा नाम पुकार-पुकारकर-`अय कबीर ! अय कबीर !’- उलटे वह मेरा जप करने लगे । जीवन… Continue reading जीवन-मृतक का अंग / कबीर

सूरातन का अंग / कबीर

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव। खेत बुहार्‌या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥ भावार्थ – गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।’ `कबीर’ सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।… Continue reading सूरातन का अंग / कबीर

बेसास का अंग / कबीर

रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥1॥ भावार्थ – क्या रोता फिरता है खाने के लिए ? अपने सरजनहार को पहचान ले न ! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा । भूखा भूखा क्या करैं, कहा… Continue reading बेसास का अंग / कबीर

मधि का अंग / कबीर

`कबीर’दुबिधा दूरि करि,एक अंग ह्वै लागि । यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं — इस दुविधा को तू दूर कर दे – कभी इधर की बात करता है, कभी उधर की । एक ही का हो जा । यह अत्यन्त शीतल है और वह अत्यंत तप्त –… Continue reading मधि का अंग / कबीर

साध का अंग / कबीर

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥ भावार्थ – कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम ।और विषय-वासनाओं में निर्लेपता । संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत । चंदन… Continue reading साध का अंग / कबीर

भेष का अंग / कबीर

माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई । मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥ भावार्थ — लोगों ने यह `मनमुखी’ माला धारण कर रखी है, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं । माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग ? `इधर’ से हटाकर मन को `उधर’ मोड़ दें,… Continue reading भेष का अंग / कबीर

चितावणी का अंग / कबीर

`कबीर’ नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं– अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम । फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने… Continue reading चितावणी का अंग / कबीर