कानन-कुसुम – पुन्य औ पाप न जान्यो जात। सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥ सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय। सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥ भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद। सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥ स्वारथ औ परमारथ सबही… Continue reading चित्राधार / जयशंकर प्रसाद
Category: Jaishankar Prasad
पेशोला की प्रतिध्वनि / जयशंकर प्रसाद
१. अरुण करुण बिम्ब ! वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड! विकल विवर्तनों से विरल प्रवर्तनों में श्रमित नमित सा – पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा . आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा- सतत सहस्त्र कर माला से – तेज ओज बल जो व्दंयता कदम्ब-सा. २. पेशोला की उर्मियाँ हैं शांत,घनी… Continue reading पेशोला की प्रतिध्वनि / जयशंकर प्रसाद
शेरसिंह का शस्त्र समर्पण / जयशंकर प्रसाद
“ले लो यह शस्त्र है गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं — अब तो ना लेश मात्र . लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का देख दिये देता है सिहों का समूह नख-दंत आज अपना .” “अरी, रण – रंगिनी ! कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर. दुर्मद तुरंत धर्म दस्युओं की… Continue reading शेरसिंह का शस्त्र समर्पण / जयशंकर प्रसाद
अंतरिक्ष में अभी सो रही है / जयशंकर प्रसाद
अंतरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला , अरे खुली भी अभी नहीं तो प्राची की मधुशाला . सोता तारक-किरन-पुलक रोमावली मलयज वात, लेते अंगराई नीड़ों में अलस विहंग मृदु गात , रजनि रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला, अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टुटा प्याला . गूंज उठी तेरी पुकार-… Continue reading अंतरिक्ष में अभी सो रही है / जयशंकर प्रसाद
मधुर माधवी संध्या में / जयशंकर प्रसाद
मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त, विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त, प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता, और चाहता इतना सूना-कोई भी न… Continue reading मधुर माधवी संध्या में / जयशंकर प्रसाद
ओ री मानस की गहराई / जयशंकर प्रसाद
ओ री मानस की गहराइ! तू सुप्त , शांत कितनी शीतल- निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल- नव मुकुर नीलमणि फलक अमल, ओ परदर्शिका! चिर चन्चल- यह विश्व बना है परछाई! तेरा विषद द्रव तरल-तरल मूर्छित न रहे ज्यों पिए गरल सुख लहर उठा री सरल सरल लघु लघु सुंदर सुंदर अविरल, तू हँस जीवन की… Continue reading ओ री मानस की गहराई / जयशंकर प्रसाद
निधरक तूने ठुकराया तब / जयशंकर प्रसाद
निधरक तूने ठुकराया तब मेरी टूटी मधु प्याली को, उसके सूखे अधर मांगते तेरे चरणों की लाली को. जीवन-रस के बचे हुए कन, बिखरे अमर में आँसू बन, वही दे रहा था सावन घन- वसुधा की हरियाली को . निदय ह्रदय में हूक उठी क्या, सोकर पहली चूक उठी क्या, अरे कसक वह कूक उठी… Continue reading निधरक तूने ठुकराया तब / जयशंकर प्रसाद
अरे!आ गई है भूली-सी / जयशंकर प्रसाद
अरे! आ गई है भूली- सी- यह मधु ऋतु दो दिन को, छोटी सी कुटिया मैं रच दू, नयी व्यथा-साथिन को! वसुधा नीचे ऊपर नभ हो , नीड़ अलग सबसे हो, झारखण्ड के चिर पतझड में भागो सूखे तिनको! आशा से अंकुर झूलेंगे पल्लव पुलकित होंगे, मेरे किसलय का लघु भव यह, आह , खलेगा… Continue reading अरे!आ गई है भूली-सी / जयशंकर प्रसाद
शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा / जयशंकर प्रसाद
शशि सी वह सुंदर रूप विभा छाहे न मुझे दिखलाना. उसकी निर्मल शीतल छाया हिमकन को बिखरा जाना. संसार स्वप्न बनकर दिन-सा आया है नहीं जगाने, मेरे जीवन के सुख निशीथ! जाते जाते रुक जाना. हाँ इन जाने की घड़ियों में, कुछ ठहर नहीं जाओगे? छाया पाठ में विश्राम नहीं, है केवल चलते जाना. मेरा… Continue reading शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा / जयशंकर प्रसाद
अरे कहीं देखा है तुमने / जयशंकर प्रसाद
अरे कहीं देखा है तुमने मुझे प्यार करने वालों को? मेरी आँखों में आकर फिर आँसू बन ढरने वालों को? सूने नभ में आग जलाकर यह सुवर्ण-सा ह्रदय गला कर जीवन-संध्या को नहलाकर रिक्त जलधि भरने वालों को? रजनी के लघु-लघु तम कन में जगती की ऊष्मा के वन में उसपर परते तुहिन सघन में… Continue reading अरे कहीं देखा है तुमने / जयशंकर प्रसाद