तेरा है / अशोक चक्रधर

तू गर दरिन्दा है तो ये मसान तेरा है, अगर परिन्दा है तो आसमान तेरा है। तबाहियां तो किसी और की तलाश में थीं कहां पता था उन्हें ये मकान तेरा है। छलकने मत दे अभी अपने सब्र का प्याला, ये सब्र ही तो असल इम्तेहान तेरा है। भुला दे अब तो भुला दे कि… Continue reading तेरा है / अशोक चक्रधर

ससुर जी उवाच / अशोक चक्रधर

डरते झिझकते सहमते सकुचाते हम अपने होने वाले ससुर जी के पास आए, बहुत कुछ कहना चाहते थे पर कुछ बोल ही नहीं पाए। वे धीरज बँधाते हुए बोले- बोलो! अरे, मुँह तो खोलो। हमने कहा- जी. . . जी जी ऐसा है वे बोले- कैसा है? हमने कहा- जी. . .जी ह़म हम आपकी… Continue reading ससुर जी उवाच / अशोक चक्रधर

हंसो और मर जाओ (कविता) / अशोक चक्रधर

हंसो, तो बच्चों जैसी हंसी, हंसो, तो सच्चों जैसी हंसी। इतना हंसो कि तर जाओ, हंसो और मर जाओ। हँसो और मर जाओ चौथाई सदी पहले लगभग रुदन-दिनों में जिनपर हम हंसते-हंसते मर गए उन प्यारी बागेश्री को समर-पति की ओर स-समर्पित श्वेत या श्याम छटांक का ग्राम धूम या धड़ाम अविराम या जाम, जैसा… Continue reading हंसो और मर जाओ (कविता) / अशोक चक्रधर

रंग जमा लो (कविता) / अशोक चक्रधर

पात्र पतिदेव श्रीमती जी भाभी टोली नायक टोली उपनायक टोली नायिका टोली उपनायिका भूतक-1 भूतक-2 भूतक-3 भूतक-4 बिटिया (पतिदेव दबे पांव घर आए और मूढ़े के पीछे छिपने लगे। उनकी सात बरस की बिटिया ने उन्हें छिपते हुए देख लिया।) पतिदेव : (फ़िल्म ‘हकीक़त’ की गीत-पैरौडी) मैं ये सोचकर अपने घर में छिपा हूं कि… Continue reading रंग जमा लो (कविता) / अशोक चक्रधर

मनोहर को विवाह-प्रेरणा / अशोक चक्रधर

रुक रुक ओ टेनिस के बल्ले, जीवन चलता नहीं इकल्ले ! अरे अनाड़ी, चला रहा तू बहुत दिनों से बिना धुरी के अपनी गाड़ी ! ओ मगरुरी ! गांठ बांध ले, इस जीवन में गांठ बांधना शादी करना बहुत ज़रूरी। ये जीवन तो है टैस्ट मैच, जिसमें कि चाहिए बैस्ट मैच। पहली बॉल किसी कारण… Continue reading मनोहर को विवाह-प्रेरणा / अशोक चक्रधर

भोजन प्रशंसा / अशोक चक्रधर

बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी। मेरी प्रिये ! तारीफ़ के वे शब्द लाऊं कहां से तेरे लिये ? जिनमें हृदय की बात हो, बिन कलम, बिना दवात हो। मन-प्राण-जीवन संगिनी, अर्द्धांगिनी, ….न न न न न….पूर्णांगिनी। खाकर ये पूरी और हलुआ, मस्त ललुआ ! (थाली के व्यंजन गिनते हुए) एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात बज… Continue reading भोजन प्रशंसा / अशोक चक्रधर

होटल में लफड़ा / अशोक चक्रधर

जागो जागो हिन्दुस्तानी, करता ये मालिक मनमानी। प्लेट में पूरी अभी बची हुई है और भाजी के लिए मना जी ! वा….जी ! हम ग्राहक, तू है दुकान… पर हे ईश्वर करुणानिधान ! कुछ अक़्ल भेज दो भेजे में इस चूज़े के लिए, अरे हम बने तुम बने इक दूजे के लिए। भाजी पर कंट्रोल… Continue reading होटल में लफड़ा / अशोक चक्रधर

गरीबदास का शून्य / अशोक चक्रधर

घास काटकर नहर के पास, कुछ उदास-उदास सा चला जा रहा था गरीबदास। कि क्या हुआ अनायास… दिखाई दिए सामने दो मुस्टंडे, जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे पर ग़रीबों के लिए गुंडे। उनके हाथों में तेल पिए हुए डंडे थे, और खोपड़ियों में हज़ारों हथकण्डे थे। बोले- ओ गरीबदास सुन ! अच्छा मुहूरत है… Continue reading गरीबदास का शून्य / अशोक चक्रधर

तमाशा (कविता) / अशोक चक्रधर

अब मैं आपको कोई कविता नहीं सुनाता एक तमाशा दिखाता हूँ, और आपके सामने एक मजमा लगाता हूँ। ये तमाशा कविता से बहूत दूर है, दिखाऊँ साब, मंजूर है? कविता सुनने वालो ये मत कहना कि कवि होकर मजमा लगा रहा है, और कविता सुनाने के बजाय यों ही बहला रहा है। दरअसल, एक तो… Continue reading तमाशा (कविता) / अशोक चक्रधर

नई भोर / अशोक चक्रधर

खुशी से सराबोर होगी कहेगी मुबारक मुबारक कहेगी बधाई बधाई आज की रंगीन हलचल दिल कमल को खिला गई मस्त मेला मिलन बेला दिल से दिल को मिला गई रात रानी की महक हर ओर होगी कल जो नई भोर होगी खुशी से सराबोर होगी। कहेगी बधाई बधाई ! चांदनी इस नील नभ में नव… Continue reading नई भोर / अशोक चक्रधर