अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला आख़िर तो अँधेरे की… Continue reading अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला / दुष्यंत कुमार
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मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे / दुष्यंत कुमार
मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती… Continue reading मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे / दुष्यंत कुमार
घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार
घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है अब लपट शायद मकानों तक पहुँचती है आशियाने को सजाओ तो समझ लेना, बरक कैसे आशियानों तक पहुँचती… Continue reading घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है / दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं… Continue reading हो गई है पीर पर्वत / दुष्यंत कुमार
किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार
किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया लगन ऐसी… Continue reading किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार
आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख । एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख । अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह, यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।… Continue reading आज सडकों पर / दुष्यंत कुमार
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं चले हवा तो किवाड़ों को बंद… Continue reading नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं / दुष्यंत कुमार
सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार
सूरज जब किरणों के बीज-रत्न धरती के प्रांगण में बोकर हारा-थका स्वेद-युक्त रक्त-वदन सिन्धु के किनारे निज थकन मिटाने को नए गीत पाने को आया, तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप और शान्त हो रहा। लज्जा से अरुण हुई तरुण दिशाओं ने आवरण हटाकर निहारा दृश्य… Continue reading सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार