हम मांस के थरथराते झंडे हें / अंशु मालवीय

मणिपुर-जुलाई 2004, सेना ने मनोरमा नाम की महिला के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी। मनोरमा के लिए न्याय की मांग करती महिलाओं ने निर्वस्त्र हो प्रदर्शन किया। उस प्रदर्शन की हिस्सेदारी के लिए यह कविता देखो हमें हम मांस के थरथराते झंडे हैं देखो बीच चौराहे पर बरहना हैं हमारी वही छातियाँ… Continue reading हम मांस के थरथराते झंडे हें / अंशु मालवीय

वैष्‍णव जन / अंशु मालवीय

वैष्णव जन आखेट पर निकले हैं! उनके एक हाथ में मोबाइल है दूसरे में देशी कट्टा तीसरे में बम और चौथे में है दुश्‍मनों की लिस्‍ट. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वे अरण्‍य में अनुशासन लाएंगे एक वर्दी में मार्च करते एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वैष्‍णव… Continue reading वैष्‍णव जन / अंशु मालवीय

वास्‍तविक जीवन की भाषा / अंशु मालवीय

हम गांव अव‍धी बोलते थे पढ़ते हिन्‍दी में थे, शहर आए तो हिन्‍दी बोलने लगे और पढ़ने लगे अंग्रेज़ी में. रिश्ते-नाते दरद-दोस्त हिन्‍दी में कागज-पत्तर बाबू-दफ़्तर सब अंग्रेज़ी में; बड़ा फ़र्क हो गया हमारे वास्‍तविक जीवन की भाषा और बौद्धिक जीवन की भाषा में. वे प्रचार करते थे हिन्दी में हम वोट देते थे रोज़मर्रा… Continue reading वास्‍तविक जीवन की भाषा / अंशु मालवीय

अकेले … और … अछूत / अंशु मालवीय

… हम तुमसे क्या उम्मीद करते बाम्हन देव! तुमने तो ख़ुद अपने शरीर के बायें हिस्से को अछूत बना डाला, बनाया पैरों को अछूत रंभाते रहे मां … मां … और मां और मातृत्व रस के रक्ताभ धब्बों को बना दिया अछूत हमारे चलने को कहा रेंगना भाषा को अछूत बना दिया छंद को, दिशा… Continue reading अकेले … और … अछूत / अंशु मालवीय