कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के / अख़्तर नाज़्मी

कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके वो ख़त भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था कुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके वैसे तो इरादा नहीं… Continue reading कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के / अख़्तर नाज़्मी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है ये ज़मी दूर तक हमारी है मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ जिससे यारी है उससे यारी है हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद जिस इमारत पे संगबारी है नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने… Continue reading सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ। या किसी और तलबगार को दे देता हूँ। धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये और साया किसी दीवार को दे देता हूँ। जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ। मुतमइन… Continue reading जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है….. मुझको भी लिखना पड़ा है जहाँ से हाशिया छोड़ा गया है अगर मानूस है तुम से परिंदा तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है कहीं कुछ है… कहीं कुछ है… कहीं कुछ मेरा सामन सब बिखरा हुआ है मैं जा बैठूँ किसी बरगद के नीचे सुकूँ का बस यही एक रास्ता है… Continue reading लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी