हाले दिल सुना नहीं सकता / अकबर इलाहाबादी

हाले दिल सुना नहीं सकता लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता होशे-आरिफ़ की है यही पहचान कि ख़ुदी में समा नहीं सकता पोंछ सकता है हमनशीं आँसू दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता मुझको हैरत है इस कदर उस पर इल्म उसका घटा नहीं सकता

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे / अकबर इलाहाबादी

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे वह थियेटर में थिरकते ही रहे दफ़ बजाया ही किए मज़्मूंनिगार वह कमेटी में मटकते ही रहे सरकशों ने ताअते-हक़ छोड़ दी अहले-सजदा सर पटकते ही रहे जो गुबारे थे वह आख़िर गिर गए जो सितारे थे चमकते ही रहे

आबे ज़मज़म से कहा मैंने / अकबर इलाहाबादी

आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों क्यों तेरी तीनत[1] में इतनी नातवानी[2] आ गई? वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई

बहार आई / अकबर इलाहाबादी

बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी यहाँ सावन से बढ़कर साक़िया फागुन बरसता है फ़रावानी हुई दौलत की सन्नाआने योरप में यह अब्रे-दौरे-इंजन है कि जिससे हुन बरसता है

मुझे भी दीजिए अख़बार / अकबर इलाहाबादी

मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ ’अकबर’ सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो

गाँधी तो हमारा भोला है / अकबर इलाहाबादी

गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत… Continue reading गाँधी तो हमारा भोला है / अकबर इलाहाबादी

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो / अकबर इलाहाबादी

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो / अकबर इलाहाबादी

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे! बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे! हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!

ख़ुदा के बाब में / अकबर इलाहाबादी

ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ायम न रक्खूँगा मचेगा गुल, ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं