ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
Category: Akbar Allahabadi
उससे तो इस सदी में / अकबर इलाहाबादी
उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़ सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा
ग़म क्या / अकबर इलाहाबादी
ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ
अफ़्सोस है / अकबर इलाहाबादी
अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है
मुँह देखते हैं हज़रत / अकबर इलाहाबादी
मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं? अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं
हम कब शरीक होते हैं / अकबर इलाहाबादी
हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में [ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”खुल कर बोलना”]मफ़्तूह [/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip]हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस [ithoughts_tooltip_glossary-tooltip content=”तर्क शास्त्र-एक विषय”]मन्तिक़[/ithoughts_tooltip_glossary-tooltip] शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में
तहज़ीब के ख़िलाफ़ है / अकबर इलाहाबादी
तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर अब शायरी वह है जो उभारे गुनाह पर क्या पूछते हो मुझसे कि मैं खुश हूँ या मलूल यह बात मुन्हसिर[1] है तुम्हारी निगाह पर
काम कोई मुझे बाकी नहीं / अकबर इलाहाबादी
काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा
मौत आई इश्क़ में / अकबर इलाहाबादी
मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया
हो न रंगीन तबीयत / अकबर इलाहाबादी
हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है