तंद्रा में अनुभूति उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे। मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की कड़ी-कड़ी। बोला हृदय, ‘लौट कर देखो प्रतिमा खो मत जाय कहीं!’ किन्तु कहीं वह स्वप्न न… Continue reading तन्द्रा में अनुभूति / अज्ञेय
Category: Hindi Poetry
अन्तिम आलोक / अज्ञेय
सन्ध्या की किरण परी ने उठ अरुण पंख दो खोले, कम्पित-कर गिरि शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले। देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल- बस एक शृंग पर हिम का था कम्पित कंचन झलमल। प्राणों में हाय, पुरानी क्यों कसक जग उठी सहसा? वेदना-व्योम से मानो खोया-सा स्मृति-घन बरसा। तेरी उस अन्त घड़ी में… Continue reading अन्तिम आलोक / अज्ञेय
बन्दी और विश्व / अज्ञेय
मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास! प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश! मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर! मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर! मैं तेरा कवि! ओ निशि-विष-प्याले के छलके रिक्त! परवशता के दाह-नीर से मेरा मन अभिषिक्त! मैं तेरा कवि! ओ प्रात:तारे के नेत्र, हताश!… Continue reading बन्दी और विश्व / अज्ञेय
बद्ध-2 / अज्ञेय
बद्ध! ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से। आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से? मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी- किस ललकार भरे स्वर में कहता है : ‘बन्दी! बन्दी!’ इस घन निर्जन में एकाकी प्राण सुन रहे, स्तब्ध हहर-हहर कर फिर-फिर आता एक प्रकम्पित… Continue reading बद्ध-2 / अज्ञेय
बद्ध-1 / अज्ञेय
बद्ध! हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध! हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर, पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर; व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार- खंडित जो कर सकता वह जगव्यापी अत्याचार, निष्फल इन प्राचीरों की जड़ता के आगे आँखों की वह दृप्त पुकार… Continue reading बद्ध-1 / अज्ञेय
अकाल-घन / अज्ञेय
घन अकाल में आये, आ कर रो गये। अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर, उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये। घन अकाल में आये, आ कर रो गये। जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्तिम हल वह भी विधि ने छीना मुझ से… Continue reading अकाल-घन / अज्ञेय
प्रात: कुमुदिनी / अज्ञेय
खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!
गीति-2 / अज्ञेय
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार। आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार, काँप-काँप कर ‘ठहरो! ठहरो!’ की करती-सी करुण पुकार किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार मानो वन में तांडव करती मानव की पशुता साकार। छोड़ दे, माँझी! तू पतवार। जाना बहुत दूर है पागल-सी घहराती है जल-धार, झूम-झूम… Continue reading गीति-2 / अज्ञेय
गीति-1 / अज्ञेय
माँझी, मत हो अधिक अधीर। साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर, नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर, किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर किंकिणि-नूपुर शब्द लिये आता है मन्द समीर। थोड़ी देर प्रतीक्षा कर लो साहस से, हे वीर- छोड़ उन्हें क्या तटिनी-तट पर चल दोगे बेपीर? माँझी,… Continue reading गीति-1 / अज्ञेय
सभी से मैंने विदा ले ली / अज्ञेय
सभी से मैं ने विदा ले ली: घर से, नदी के हरे कूल से, इठलाती पगडंडी से पीले वसंत के फूलों से पुल के नीचे खेलती डाल की छायाओं के जाल से। सब से मैं ने विदा ले ली: एक उसी के सामने मुँह खोला भी, पर बोल नहीं निकले।