क्वाँर की बयार / अज्ञेय

इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे– शेफ़ाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन– बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही– पर मैं बात हार चली ! इलाहाबाद, अक्टूबर, 1948

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कतकी पूनो / अज्ञेय

छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले, पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती– सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती ! कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकास नीम; उजली-लालिम मालती गन्ध के डोरे डालती; मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर… Continue reading कतकी पूनो / अज्ञेय

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दूर्वांचल / अज्ञेय

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैं ने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!) क्षितिज ने पलक-सी खोली, तमक कर दामिनी बोली- ‘अरे यायावर! रहेगा याद?’ माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947

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पराजय है याद / अज्ञेय

भोर बेला–नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान— मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद। काशी, 14 नवम्बर, 1946

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पानी बरसा / अज्ञेय

ओ पिया, पानी बरसा ! घास हरी हुलसानी मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती झर पड़े जीते पीत अमलतास चातकी की वेदना बिरानी। बादलों का हाशिया है आस-पास बीच लिखी पाँत काली बिजली की कूँजों के डार– कि असाढ़ की निशानी ! ओ पिया, पानी ! मेरा हिया हरसा। खड़-खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।… Continue reading पानी बरसा / अज्ञेय

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मैं वह धनु हूँ / अज्ञेय

मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है– प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता ! कौन कहेगा क्या उस में है विधि का आशय ! क्या मेरे कर्मों का संचय मुझ को चिन्ता छूट गई… Continue reading मैं वह धनु हूँ / अज्ञेय

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वसीयत / अज्ञेय

मेरी छाती पर हवाएं लिख जाती हैं महीन रेखाओं में अपनी वसीयत और फिर हवाओं के झोंकों ही वसीयतनामा उड़ाकर कहीं और ले जाते हैं। बहकी हवाओ ! वसीयत करने से पहले हल्‍फ उठाना पड़ता है कि वसीयत करने वाले के होश-हवाश दुरूस्‍त हैं: और तुम्‍हें इसके लिए गवाह कौन मिलेगा मेरे ही सिवा ?… Continue reading वसीयत / अज्ञेय

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प्रतीक्षा-गीत / अज्ञेय

हर किसी के भीतर एक गीत सोता है जो इसी का प्रतीक्षमान होता है कि कोई उसे छू कर जगा दे जमी परतें पिघला दे और एक धार बहा दे। पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है जब-जब तुम ने मुझे जगाया… Continue reading प्रतीक्षा-गीत / अज्ञेय

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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब / अज्ञेय

दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। तब ललाट की कुंचित अलकों- तेरे ढरकीले आँचल को, तेरे पावन-चरण कमल को, छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब। मैं तो केवल तेरे पथ से उड़ती रज की ढेरी भर के, चूम-चूम कर संचय कर के रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के… Continue reading दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब / अज्ञेय

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मैं ने देखा, एक बूँद / अज्ञेय

मैं ने देखा एक बूँद सहसा उछली सागर के झाग से; रंग गई क्षणभर, ढलते सूरज की आग से। मुझ को दीख गया: सूने विराट् के सम्‍मुख हर आलोक-छुआ अपनापन है उन्‍मोचन नश्‍वरता के दाग से!

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