झींगुरों की लोरियाँ सुला गई थीं गाँव को, झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं धीमे-धीमे उजली कपासी धूम-डोरियाँ।
Category: Hindi Poetry
औद्योगिक बस्ती / अज्ञेय
पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर धुआँ उगलती जाती हैं। भीतर जलते लाल धातु के साथ कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी तप्त उबलती जाती हैं। बंधी लीक पर रेलें लादें माल चिहुँकती और रंभाती अफ़राये डाँगर-सी ठिलती चलती जाती हैं। उद्यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्तिकाम मानव की… Continue reading औद्योगिक बस्ती / अज्ञेय
शब्द और सत्य / अज्ञेय
यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है : दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है : दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे उस में सेंध लगा दूँ या भर कर… Continue reading शब्द और सत्य / अज्ञेय
सर्जना के क्षण / अज्ञेय
एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति शिखायें वहीं तुम भी चली जाना शांत तेजोरूप! एक क्षण भर और लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! बूँद स्वाती की भले हो बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से वज्र… Continue reading सर्जना के क्षण / अज्ञेय
योगफल / अज्ञेय
सुख मिला : उसे हम कह न सके। दुख हुआ: उसे हम सह न सके। संस्पर्श बृहत का उतरा सुरसरि-सा : हम बह न सके । यों बीत गया सब : हम मरे नहीं, पर हाय ! कदाचित जीवित भी हम रह न सके। जेनेवा, 12 सितम्बर, 1955
खुल गई नाव / अज्ञेय
खुल गई नाव घिर आई संझा, सूरज डूबा सागर-तीरे। धुंधले पड़ते से जल-पंछी भर धीरज से मूक लगे मंडराने, सूना तारा उगा चमक कर साथी लगा बुलाने। तब फिर सिहरी हवा लहरियाँ काँपीं तब फिर मूर्छित व्यथा विदा की जागी धीरे-धीरे। स्वेज अदन (जहाज में), 5 फरवरी, 1956
साँप / अज्ञेय
साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना– विष कहाँ पाया? दिल्ली, 15 जून, 1954
हवाएँ चैत की / अज्ञेय
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की कट गईं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की।
उषा-दर्शन / अज्ञेय
मैंने कहा– डूब चांद। रात को सिहरने दे कुइँयों को मरने दे। आक्षितिज तन फ़ैल जाने दे। पर तम थमा और मुझी में जम गया। मैंने कहा– उठ री लजीली भोर-रश्मि, सोई दुनिया में तुझे कोई देखे मत, मेरे भीतर समा जा तू चुपके से मेरी यह हिमाहत नलिनी खिला जा तू। वो प्रगल्भा मानमयी… Continue reading उषा-दर्शन / अज्ञेय
प्रथम किरण / अज्ञेय
भोर की प्रथम किरण फीकी। अनजाने जागी हो याद किसी की- अपनी मीठी नीकी। धीरे-धीरे उदित रवि का लाल-लाल गोला चौंक कहीं पर छिपा मुदित बनपाखी बोला दिन है जय है यह बहुजन की। प्रणति, लाल रवि, ओ जन-जीवन लो यह मेरी सकल भावना तन की, मन की- वह बनपाखी जाने गरिमा महिमा मेरे छोटे… Continue reading प्रथम किरण / अज्ञेय