जो पुल बनाएंगे वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएंगे। सेनाएँ हो जाएंगी पार मारे जाएंगे रावण जयी होंगे राम, जो निर्माता रहे इतिहास में बन्दर कहलाएंगे
Category: Hindi Poetry
जाड़ों में / अज्ञेय
लोग बहुत पास आ गए हैं। पेड़ दूर हटते हुए कुहासे में खो गए हैं और पंछी (जो ऋत्विक हैं) चुप लगा गए हैं। बर्लिन, जून, 1976
कदम्ब-कालिन्दी-2 / अज्ञेय
(दूसरा वाचन) अलस कालिन्दी– कि काँपी टेर वंशी की नदी के पार। कौन दूभर भार अपने-आप झुक आई कदम की डार धरा पर बरबस झरे दो फूल। द्वार थोड़ा हिले– झरे, झपके राधिका के नैन अलक्षित टूट कर दो गिरे तारक बूंद। फिर– उसी बहती नदी का वही सूना कूल !– पार– धीरज-भरी फिर वह… Continue reading कदम्ब-कालिन्दी-2 / अज्ञेय
कदम्ब-कालिन्दी-1 / अज्ञेय
(पहला वाचन) टेर वंशी की यमुन के पार अपने-आप झुक आई कदम की डार। द्वार पर भर, गहर, ठिठकी राधिका के नैन झरे कँप कर दो चमकते फूल। फिर वही सूना अंधेरा कदम सहमा घुप कलिन्दी कूल !
अलाव / अज्ञेय
माघ : कोहरे में अंगार की सुलगन अलाव के ताव के घेरे के पार सियार की आँखों में जलन सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन सब मुझे याद है : मैं थकता हूँ पर चुकती नहीं मेरे भीतर की भटकन ! नयी दिल्ली, दिसम्बर, 1980
फूल की स्मरण-प्रतिमा / अज्ञेय
यह देने का अहंकार छोड़ो । कहीं है प्यार की पहचान तो उसे यों कहो : ‘मधुर ये देखो फूल । इसे तोड़ो; घुमा-फिरा कर देखो, फिर हाथ से गिर जाने दो : हवा पर तिर जाने दो- (हुआ करे सुनहली) धूल ।’ फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है । तुम नहीं, न तुम्हारा दान… Continue reading फूल की स्मरण-प्रतिमा / अज्ञेय
वासंती / अज्ञेय
मेरी पोर-पोर गहरी निद्रा में थी जब तुमने मुझे जगाया। हिमनिद्रा में जड़ित रीछ हो एकाएक नया चौंकाया-यों मैं था। पर अब! चेत गयी हैं सभी इन्द्रियाँ एक अवश आज्ञप्ति उन्हें कर गयी सजग, सम्पुजित; पूरा जाग गया हूँ एक बसन्ती धूप-सने खग-रव में; जान गया हूँ उस पगले शिल्पी ईश्वर का क्रिया-कल्प! फिर छुओ!… Continue reading वासंती / अज्ञेय
घर-5 / अज्ञेय
घर मेरा कोई है नहीं घर मुझे चाहिए घर के भीतर प्रकाश हो इसकी भी मुझे चिंता नहीं है प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो इसी की मुझे तलाश है ऐसा कोई घर आपने देखा है ? देखा हो तो मुझे भी उसका पता दें न देखा हो तो मैं आपको भी सहानुभूति… Continue reading घर-5 / अज्ञेय
घर-4 / अज्ञेय
घर हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं घर की बातें सबकी अपनी हैं घर की बातें कोई किसी से नहीं करता जिनकी बातें होती हैं वे घर नहीं हैं
घर-3 / अज्ञेय
दूसरों के घर भीतर की ओर खुलते हैं रहस्यों की ओर जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं शहरों में होते हैं दूसरों के घर दूसरे के घरों में दूसरों के घर दूसरों के घर हैं