शरणार्थी-6 समानांतर साँप / अज्ञेय

केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो। छल मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो। साँप के विष-दाँत तोड़ उघाड़ दो। आजकल यह चलन है, सब जंतुओं की खाल पहने हैं- गले गीदड़ लोमड़ी की बाघ की है खाल काँधों पर दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से हाथ में थैला मगर की खाल का और… Continue reading शरणार्थी-6 समानांतर साँप / अज्ञेय

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एक ऑटोग्राफ / अज्ञेय

अल्ला रे अल्ला होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला। रूखे कर्म जीवन से उलझता न पल्ला। चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला- अल्ला रे अल्ला

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मैंने पूछा क्या कर रही हो / अज्ञेय

मैंने पूछा यह क्या बना रही हो ? उसने आँखों से कहा धुआँ पोछते हुए कहा : मुझे क्या बनाना है ! सब-कुछ अपने आप बनता है मैंने तो यही जाना है । कह लो भगवान ने मुझे यही दिया है । मेरी सहानुभूति में हठ था : मैंने कहा : कुछ तो बना रही… Continue reading मैंने पूछा क्या कर रही हो / अज्ञेय

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कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरे बाजरे की। अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा प्यार मैला है। बल्कि केवल… Continue reading कलगी बाजरे की

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सम्भावनाएँ / अज्ञेय

अब आप हीं सोचिये कि कितनी सम्भावनाएँ हैं कि मैं आप पर हँसूं और आप मुझे पागल करार दे दें. याकि आप मुझ पर हँसें और आप हीं मुझे पागल करार दे दें. या कि आपको कोई बताए कि मुझे पागल करार किया गया और आप केवल हँस दें. या कि हँसी की बात जाने… Continue reading सम्भावनाएँ / अज्ञेय

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खुल गई नाव / अज्ञेय

खुल गई नाव घिर आई संझा, सूरज डूबा सागर-तीरे। धुंधले पड़ते से जल-पंछी भर धीरज से मूक लगे मंडराने, सूना तारा उगा चमक कर साथी लगा बुलाने। तब फिर सिहरी हवा लहरियाँ काँपीं तब फिर मूर्छित व्यथा विदा की जागी धीरे-धीरे। स्वेज अदन (जहाज में), 5 फरवरी, 1956

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तुम्हारी पलकों का कँपना / अज्ञेय

तुम्हारी पलकों का कँपना । तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । मानो दीखा तुम्हें किसी कली के खिलने का सपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । सपने की एक किरण मुझको दो ना, है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना, और सब समय पराया है बस उतना क्षण… Continue reading तुम्हारी पलकों का कँपना / अज्ञेय

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चाँदनी चुपचाप सारी रात / अज्ञेय

चाँदनी चुपचाप सारी रात- सूने आँगन में जाल रचती रही । मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम- आँच पर तचती रही । व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही । मैं दम साधे रहा मन में अलक्षित आँधी मचती रही । प्रात बस इतना कि मेरी बात सारी रात उघड़ कर… Continue reading चाँदनी चुपचाप सारी रात / अज्ञेय

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पराजय है याद / अज्ञेय

भोर बेला–नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान— मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद। काशी, 14 नवम्बर, 1946

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प्राण तुम्हारी पदरज़ फूली / अज्ञेय

प्राण तुम्हारी पदरज फूली मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की यह धूली! आई थी तो जाना भी था – फिर भी आओगी, दुःख किसका? एक बार जब दृष्टिकरों के पद चिह्नों की रेखा छू ली! वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी, गीत शब्द का कब अभिलाषी? अंतर में पराग-सी छाई है स्मृतियों की आशा धूली! प्राण… Continue reading प्राण तुम्हारी पदरज़ फूली / अज्ञेय

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