नंदा देवी-2 / अज्ञेय

तुम वहाँ से मंदिर तुम्हारा यहाँ है। और हम- हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी- यहाँ से- और हमारा मन वह कहाँ है?

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नंदा देवी-1 / अज्ञेय

ऊपर तुम, नंदा! नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड़ को दुलार से टेरती-सी गड़रिए की बाँसुरी की तान: और भी नीचे कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से नए खनि-यंत्र की भठ्ठी से उठे धुएँ का फंदा। नदी की घेरती-सी वत्सल कुहनी के मोड़ में सिहरते-लहरते शिशु धान। चलता ही जाता… Continue reading नंदा देवी-1 / अज्ञेय

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देखिए न मेरी कारगुज़ारी / अज्ञेय

अब देखिए न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी कर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दूकान से किराया वसूल कर लाया हूँ थैली वाले को थैली तोड़े वाले को तोड़ा -और घोड़े वाले को घोड़ा। सब को सब का लौटा… Continue reading देखिए न मेरी कारगुज़ारी / अज्ञेय

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नीमाड़: चैत / अज्ञेय

1. पेड़ अपनी-अपनी छाया को आतप से ओट देते चुपचाप खड़े हैं। तपती हवा उन के पत्ते झराती जाती है। 2. छाया को झरते पत्ते नहीं ढँकते, पत्तों को ही छाया छा लेती है।

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सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान / अज्ञेय

हे महाबुद्ध! मैं मंदिर में आयी हूँ रीते हाथ: फूल मैं ला न सकी। औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता। जो मुझे सुनाती जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत- खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ तेरी करुणा बुनती रहती है भव के सपनों, क्षण के आनंदों के रह: सूत्र अविराम- उस भोली मुग्धा को कँपती… Continue reading सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान / अज्ञेय

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मैं देख रहा हूँ / अज्ञेय

मैं देख रहा हूँ झरी फूल से पँखुरी -मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते। मैं चुप हूँ: वह मेरे भीतर वसंत गाता है।

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हरी घास पर क्षणभर / अज्ञेय

आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो। तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस, नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे… Continue reading हरी घास पर क्षणभर / अज्ञेय

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शरणार्थी: जीना है बन सीने का साँप / अज्ञेय

हम ने भी सोचा था कि अच्छी चीज़ है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज अपने ही बल के अपने ही छल के अपने ही कौशल के अपनी समस्त सभ्यता के सारे संचित प्रपंच के सहारे जीना है हमें तो, बन सीने का साँप… Continue reading शरणार्थी: जीना है बन सीने का साँप / अज्ञेय

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दूर्वाचल / अज्ञेय

पाश्र्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैंने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!) क्षितिज ने पलक-सी खोली, तमक कर दामिनी बोली- ‘अरे यायावर! रहेगा याद?’

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सागर किनारे / अज्ञेय

तनिक ठहरूँ। चाँद उग आए, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आए। न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर, मोड़ पर जिस के नदी का कूल… Continue reading सागर किनारे / अज्ञेय

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