घर-3 / अज्ञेय

दूसरों के घर भीतर की ओर खुलते हैं रहस्यों की ओर जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं शहरों में होते हैं दूसरों के घर दूसरे के घरों में दूसरों के घर दूसरों के घर हैं

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घर-2 / अज्ञेय

तुम्हारा घर वहाँ है जहाँ सड़क समाप्त होती है पर मुझे जब सड़क पर चलते ही जाना है तब वह समाप्त कहाँ होती है ? तुम्हारा घर….

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घर-1 / अज्ञेय

मेरा घर दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है मेरा घर दो दरवाज़ों के बीच है उसमें किधर से भी झाँको तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होगे तुम्हें पार का दृश्य दीख जाएगा घर नहीं दीखेगा

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नाता-रिश्ता-5 / अज्ञेय

उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ : उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ– यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।

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नाता-रिश्ता-4 / अज्ञेय

वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? हाँ– बातों के बीच की चुप्पियों में हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में तीर्थों की पगडंडियों में बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में !

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नाता-रिश्ता-3 / अज्ञेय

यहीं, यहीं और अभी इस सधे सन्धि-क्षण में इस नए जन्मे, नए जागे, अपूर्व, अद्वितीय…अभागे मेरे पुण्यगीत को अपने अन्त:शून्य में ही तन्मय हो जाने दो– यों अपने को पाने दो !

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नाता-रिश्ता-2 / अज्ञेय

तो यों, इस लिए यहीं अकेले में बिना शब्दों के मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो मौन में लय हो जाने दो : यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं केवल मरु का रेत-लदा झोंका डँसता है और फिर एक किरकिरी हँसी हँसता बढ़ जाता है- यहीं जहाँ रवि तपता है और अपनी ही… Continue reading नाता-रिश्ता-2 / अज्ञेय

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नाता-रिश्ता-1 / अज्ञेय

तुम सतत चिरन्तन छिने जाते हुए क्षण का सुख हो– (इसी में उस सुख की अलौकिकता है) : भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई भावना का अर्थ– (वही तो अर्थ सनातन है) : वह सोने की कनी जो उस अंजलि भर रेत में थी जो –धो कर अलग करने में– मुट्ठियों में फिसल… Continue reading नाता-रिश्ता-1 / अज्ञेय

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आंगन के पार द्वार खुले / अज्ञेय

आंगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आंगन भवन के ओर-छोर सभी मिले– उन्हीं में कहीं खो गया भवन : कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन।

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अनुभव-परिपक्व / अज्ञेय

माँ हम नहीं मानते– अगली दीवाली पर मेले से हम वह गाने वाला टीन का लट्टू लेंगे हॊ लेंगे– नहीं, हम नहीं जानते– हम कुछ नहीं सुनेंगे। –कल गुड़ियों का मेला है, माँ। मुझे एक दो पैसे वाली काग़ज़ की फिरकी तो ले देना। अच्छा मैं लट्टू नहीं मांगता– तुम बस दो पैसे दे देना।… Continue reading अनुभव-परिपक्व / अज्ञेय

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