प्राण तुम्हारी पदरज फूली मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की यह धूली! आई थी तो जाना भी था – फिर भी आओगी, दुःख किसका? एक बार जब दृष्टिकरों के पद चिह्नों की रेखा छू ली! वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी, गीत शब्द का कब अभिलाषी? अंतर में पराग-सी छाई है स्मृतियों की आशा धूली! प्राण… Continue reading प्राण तुम्हारी पदरज़ फूली / अज्ञेय
Category: Agyeya
देना-पाना / अज्ञेय
दो?हाँ, दो बड़ा सुख है देना! देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा- पर गिरेगा नहीं, और फिर बोध यह लायेगा कि देना नहीं है नि:स्व होना और वह बोध, तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा। लो? हाँ लो! सौभाग्य है पाना, उसकी आँधी से रोम-रोम एक नई सिहरन से भर जायेगा। पाने में जीना भी… Continue reading देना-पाना / अज्ञेय
रात होते-प्रात होते / अज्ञेय
प्रात होते – सबल पंखों की मीठी एक चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावली को – जान कर मैं अनुगता हूँ – उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी श्रुता (?) हूँ – उड़ गया वह पंछी बावला पंछी सुनहला कर प्रहर्षित देह की रोमावली को : प्रात होते… Continue reading रात होते-प्रात होते / अज्ञेय
शोषक भैया / अज्ञेय
डरो मत शोषक भैया : पी लो मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है पी लो शोषक भैया : डरो मत। शायद तुम्हें पचे नहीं– अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है। मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो इसका ज़िम्मा तो मैं नहीं ले सकता, शोषक भैया? जैसे… Continue reading शोषक भैया / अज्ञेय
हीरो / अज्ञेय
सिर से कंधों तक ढँके हुए वे कहते रहे कि पीठ नहीं दिखाएंगे– और हम उन्हें सराहते रहे। पर जब गिरने पर उनके नकाब उल्टे तो उनके चेहरे नहीं थे।
पक गई खेती / अज्ञेय
वैर की परनालियों में हँस-हँस के हमने सींची जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था घृणा की आज उसमें पक गई खेती फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ हैं। मेरठ, 15 अक्टूबर, 1947
क्योंकि मैं / अज्ञेय
क्योंकि मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे उस आदमी से कुछ नहीं है जिसकी आँखों के आगे उसकी लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गई है, और जिसे चूंकि चांदनी से कुछ नहीं है, इसलिए मैं नहीं कह सकता कि मुझे चांदनी से कुछ नहीं है। क्योंकि मैं… Continue reading क्योंकि मैं / अज्ञेय
विपर्यय / अज्ञेय
जो राज करें उन्हें गुमान भी न हो कि उनके अधिकार पर किसी को शक है, और जिन्हें मुक्त जीना चाहिए उन्हें अपनी कारा में इसकी ख़बर ही न हो कि उनका यह हक़ है। दिल्ली, 1 नवम्बर, 1954
हमारा देश / अज्ञेय
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से ढंके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के उमगते सुर में हमारी साधना का रस बरसता है। इन्हीं के मर्म को अनजान शहरों की ढँकी लोलुप विषैली वासना का साँप डँसता है। इन्हीं में लहरती अल्हड़ अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर सभ्यता का भूत हँसता है।… Continue reading हमारा देश / अज्ञेय
काँपती है / अज्ञेय
पहाड़ नहीं काँपता, न पेड़, न तराई; काँपती है ढाल पर के घर से नीचे झील पर झरी दिये की लौ की नन्ही परछाईं। बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), नवम्बर, 1969