बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ / हनीफ़ कैफ़ी

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ बहा के ले गई मुझ को कहाँ शुऊर की रौ बना चुका हूँ अधूरे मुजस्समे कितने कहाँ वो नक़्श जो तकमील-ए-फ़न का हो परतव वो मोड़ मेरे सफ़र का है नुक़्ता-ए-आग़ाज़ फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हुए जहाँ रह-रौ लरज़ते हैं मिरी महरूम-ए-ख़्वाब आँखों में बिखर चुके हैं जो ख़्वाब उन… Continue reading बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ / हनीफ़ कैफ़ी

आरज़ूएँ कमाल-आमादा / हनीफ़ कैफ़ी

आरज़ूएँ कमाल-आमादा ज़िंदगानी ज़वाल-आमादा ज़िंदगी तिश्ना-ए-मजाल-ए-जवाब लम्हा लम्हा सवाल-आमादा ज़ख़्म खा कर बिफर रही है अना आजज़ी है जलाल-आमादा कैसे हमवार हो निबाह की राह दिल मुख़ालिफ़ ख़याल आमादा फिर कोई निश्तर-आज़मा हो जाए ज़ख़्म हैं इंदिमाल-आमादा हर क़दम फूँक फूँक कर रखिए रहगुज़र है जिदाल-आमादा हर नफ़स ज़र्फ़-आज़मा ‘कैफ़ी’ हर नज़र इश्तिआल-आमादा