इंतज़ार / ज्ञानेन्द्रपति

घुटने मोड़ पर बैठी हुई यह लड़की शाम के इंतज़ार में है धुँधलके के इंतज़ार में दिन उतर आया है उसके घुटनों तक घुटने मोड़ कर बैठी हुई यह लड़की दिन के अपने पैरों तले आ जाने के इंतज़ार में है अँधेरे के इंतज़ार में तब अपने केशों पर फिरायेगी वह हाथ और बदल जाएगा… Continue reading इंतज़ार / ज्ञानेन्द्रपति

वे दो दाँत-तनिक बड़े / ज्ञानेन्द्रपति

वे दो दाँत-तनिक बड़े जुड़वाँ सहोदरों-से अन्दर-नहीं, सुन्दर पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण होंठों के बादली कपाट जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते और कभी पूरा नहीं मूँद पाते हास्य को देते उज्ज्वल आभा मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं- अलकापुरीवासिनी लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी गली पिपलानी कटरा की मंजू… Continue reading वे दो दाँत-तनिक बड़े / ज्ञानेन्द्रपति

बनानी बनर्जी / ज्ञानेन्द्रपति

वह सो गयी है बनानी बनर्जी ! लम्बी रात के इस ठहरे हुए निशीथ-क्षण में डूबी हुई अपने अस्तित्व के सघन अरण्य में एक भटकी हुई मुस्कान खोजने कमरे के एक कोने में टेबुल पर रखे उसके बैग में छोटे गोल आईने कंघी और लिपिस्टिक से लिपट कर सोयी है उसकी हँसी दिन-भर हँस कर… Continue reading बनानी बनर्जी / ज्ञानेन्द्रपति

एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ / ज्ञानेन्द्रपति

1 यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है। इसमें क्या है ? एक बन रहा शिशु-भर ? झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना। बस ? कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की तुम क्या जानो कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह… Continue reading एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ / ज्ञानेन्द्रपति