जंगल / अंजू शर्मा

(सत्तर के दशक में हुए ‘चिपको आन्दोलन’ पर लिखी गयी पुरस्कृत कविता) वे नहीं थी शिक्षित और बुद्धिजीवी, उनके पास नहीं थी अपने अधिकारों के प्रति सजगता, वे सब आम औरतें थीं, बेहद आम, घर और वन को जीने वाली, वे नहीं जानती थी ग्लोबल वार्मिंग किसे कहते हैं, वे नहीं जानती थी वे बनने… Continue reading जंगल / अंजू शर्मा

तीन सिरों वाली औरत / अंजू शर्मा

मैं अक्सर महसूस करती हूँ उस रागात्मक सम्बन्ध को जो सहज ही जोड़ लेती है एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ, मेरे घर में काम करने वाली एक तमिल महिला धनलक्ष्मी, या मेरे कपडे प्रेस करने वाली रेहाना अक्सर उतर आती हैं मेरे मन में डबडबाई आँखों के रास्ते तब अचानक मैं पाती हूँ मेरे… Continue reading तीन सिरों वाली औरत / अंजू शर्मा

जूते और आदमी / अंजू शर्मा

कहते हैं आदमी की पहचान जूते से होती है आवश्यकता से अधिक घिसे जाने पर स्वाभाविक है दोनों के ही मुंह का खुल जाना, बेहद जरूरी है आदमी का आदमी बने रहना, जैसे जरूरी है जूतों का पांवों में बने रहना, जूते और आदमी दोनों ही एक खास मुकाम पर भूल जाते हैं याददाश्त आगे… Continue reading जूते और आदमी / अंजू शर्मा

जूते सब समझते हैं / अंजू शर्मा

जूते जिनके तल्ले साक्षी होते हैं उस यात्रा के जो तय करते हैं लोगों के पाँव, वे स्कूल के मैदान, बनिए की दुकान और घर तक आती सड़क या फिर दफ्तर का अंतर बखूबी समझते हैं क्योंकि वे वाकिफ हैं उस रक्त के उस भिन्न दबाव से जन्मता है स्कूल, दुकान, घर या दफ्तर को… Continue reading जूते सब समझते हैं / अंजू शर्मा

जूते और विचार / अंजू शर्मा

कभी कभी जूते छोटे हो जाते हैं या कहिये कि पांव बड़े हो जाते हैं, छोटे जूतों में कसमसाते पाँव दिमाग से बाहर आने को आमादा विचारों जैसे होते हैं, दोनों को ही बांधे रखना मुश्किल और गैर-वाजिब है, ये द्वन्द थम जाता है जब खलबली मचाते विचार ढूँढ़ते हैं एक माकूल शक्ल और शांत… Continue reading जूते और विचार / अंजू शर्मा

गाँधी के लिए / अंजू शर्मा

सुनो राष्ट्रपिता, जब भी खंगाला गया इतिहास निशाने पर थे तुम और संगीनों की नोक से मजलूमों के सीने पर गुदता रहा ‘अहिंसा’, मैंने देखा है तुम्हें बरस-दर-बरस बदलते एक ऐसी दीवार में जहाँ टंगे तुम्हारे चित्र पर अंकित किये जाते रहे गुणदोष, हर एक दशक पर पर बदलती रही तुम्हारे संयम और दृढ-इच्छाशक्ति की… Continue reading गाँधी के लिए / अंजू शर्मा

मलाला सिर्फ एक नहीं है… / अंजू शर्मा

आँख से बहते आंसू के हर कतरे का व्यर्थ बह जाना भी आज पाप माना जायेगा, आओ, कि बदल दे उसे रक्तबीज में जो उबल रहा है मेरे और आपके सीने में, सूंघ लो फिजा में घुलते उस ज़हर को जिसका निशाना है कमसिन मुस्कुराहटें, इससे पहले कि वो मासूमियत बदल जाये कब्र पर रखे… Continue reading मलाला सिर्फ एक नहीं है… / अंजू शर्मा

हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज / अंजू शर्मा

सोचती हूँ मुक्ति पा ही लूँ अपने नाम के पीछे लगे इन दो अक्षरों से जिनका अक्सर स्वागत किया जाता है माथे पर पड़ी कुछ आड़ी रेखाओं से, जड़ों से उखड़ कर अलग अलग दिशाओं में गए मेरे पूर्वज तिनके तिनके जमा कर घोंसला ज़माने की जुगत में कभी नहीं ढो पाए मनु की समझदारी… Continue reading हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज / अंजू शर्मा

औरत और इंसान / अंजू शर्मा

सोच के एक जरूरी मुकाम पर अक्सर ये लगता है कि क्यों न सोचा जाए उन सभी संभावनाओं पर जहाँ एक औरत और एक इंसान बन जाएँ समानार्थी शब्द एक औरत बने हुए ही बहुत ही सहज, सुगम बल्कि है एक इंसान बनना बहुत से मूल अधिकार स्वतः ही भर देते हैं व्यक्तित्व की झोली,… Continue reading औरत और इंसान / अंजू शर्मा

कामना / अंजू शर्मा

हमारे रिश्ते के बीच ऊब में डूबते तमाम पुल टूट जाने से पहले खो जाना चाहती हूँ मंझधार में, शायद कभी कभी डूबना, पार लगने से कहीं ज्यादा पुरसुकून होता है, बेपरवाह गुजरने की ख्वाहिश ऊँगली थामे है उन सभी पुरखतर रास्तों पर जहाँ लगे होते हैं साईनबोर्ड निषेध के, जंग खाए परों को तौलकर… Continue reading कामना / अंजू शर्मा