हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है / फ़रहत एहसास

हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
शहर में जो भी हुआ है वो ख़ता मेरी है

ये जो है ख़ाक का इक ढेर बदन है मेरा
वो जो उड़ती हुई फिरती है क़बा मेरी है

वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
ये जो तनहाई बरसती है सज़ा है मेरी है

मैं न चाहूँ तो न खिल पाए कहीं एक भी फूल
बाग़ तेरा है मगर बाद-ए-सबा मेरी है

एक टूटी हुई कश्ती सा बन बैठा हूँ
न ये मिट्टी न ये पानी न हवा मेरी है

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *