हम निकल पड़े है / अंजू शर्मा

हमने मांगी जिंदगी तो थोपे गए तयशुदा फलसफे,
चाहीं किताबें तो हर बार थमा दिए गए अड़ियल शब्दकोष,
हमारे चलने, बोलने और हंसने के लिए
तय की गयीं एकतरफा आचार-संहिताएँ,
हर मुस्कराहट की एवज में चुकाते रहे
हम कतरा कतरा सुकून

हम इतिहास की नींव का पत्थर हैं किन्तु
हमारे हर बढ़ते कदम के नीचे से
खींचे गए बिछे हुए कालीन
और हर ऊँचाई की कतर-ब्योत को
जन्मना हक समझा गया,
हमसे छीने गए पहचान, नाम और गोत्र तक,
झोली में भरते हुए लाचारगी,
चेहरों पर चिपकाई गयीं कृत्रिम मुस्काने,
सजे धजे हम बदलते रहे दुकानो के बाहर खड़े
36-24-36 के कामुक मेनेक़ुइन्स में,

हद तो तब हुई ज़नाब,
जब हमसे हमारे ही होने के मांगे गए सुबूत,
आंसुओं को गुज़रना पड़ा लिटमस टेस्ट से,
और आहों के किये गए मनचाहे नामकरण,
गढ़ी गयी नयी नयी कसौटियां और
आँचल में बांध दिए गए
कितने ही सूत्र, समीकरण, नियम, सिद्धांत
और सन्दर्भ,
तन तो पहले ही पराये थे
हमारे मनों पर भी कसी गयीं नकेलें
तयशुदा टाइम-टेबल पर
बारहोमास यंत्रवत चलते हम
भूलने लगे न्यूटन का गति का तीसरा नियम,
याद दिलाया तो केवल यही
कि जीवन में सापेक्षता के सिद्धांत में
केवल डूबना ही मायने रखता है,
कि हमें बदल जाना है
हर जल में घुलनशील एक पदार्थ में,
और हमारी लोच पर लगायी गयी तमाम शर्तें,
हम मानने ही लगे कि इंसान और मशीन के बीच
धड़कते दिल का फर्क बेमानी है,
और हायबरनेशन पर गए हमारे दिल का काम था
सिर्फ और सिर्फ खून साफ़ करना,

हमने सीखा एक औरत का तापमान
अप्रभावित रहता है सभी कारकों से,
हमें बताया गया समकोण त्रिभुज की
दोनों भुजाओं के वर्ग का योग
बराबर होता है तीसरी भुजा के वर्ग के,
और हम सुनिश्चित करते रहे कोण समकोण ही रहे,
तब भी जब बढती रही दोनों भुजाएं
विपरीत दिशाओं में
और बदलता रहा हर मोड़ पर
तीसरी भुजा का माप,

हमने पढ़ा मांग और पूर्ति के समस्त नियम
तय करते हैं कीमत को,
पर देखिये तो हमारी कीमतें तो बेअसर ही रहीं
ऐसे सभी नियमों से,

हमारे लिए रची गयी “चरित्रहीन” की “सुरबाला” और
हमें बदल जाना था वक़्त आने पर
“मर्चेंट ऑफ़ वेनिस” की
“पोर्शिया” में,
हमारी हर उठी आवाज के लिए नजीर थे
अनारकली और लक्ष्मीबाई के दुखद अंत,
चाँद बीबी और रज़िया सुल्तान की कोशिशें
तो भेंट चढ़ा दी गयी साजिशन बलि,

हम तब भी बढ़ते रहे
बार बार काटी गयी, फिर भी उगती,
अनचाही खरपतवार से,
हवा, धूप और पानी के बगैर भी
जीने के लिए अनुकूलित हुए हम निर्लज्ज,
बनाते रहे दुनिया के हर कोने में जगह
जैसे कुर्सियों से भरे सभागार में अड़े खड़े हो
अनामंत्रित अतिथि
जैसे विपरीत दिशा में बढ़ने को आतुर हो
कोई जिद्दी घोडा,
जैसे बारह बरस के जतन के बाद भी
मुंह चिढाती हो कुत्ते की टेढ़ी पूंछ,
जैसे डीडीटी से प्रभाव से बेअसर हो
बढ़ते ही जाएँ निर्दयी हठीले मच्छर,
जैसे लोककथाओं में बार बार मरने पर भी
अभिशप्त हो लेने के लिए सात जन्म कोई बिल्ली,
जैसे सूखी जमीन पर फलता फूलता जाये
बिना पानी यूकेलिप्टस,

हम जानते हैं घोडा, कुत्ते, मच्छर और बिल्ली से
इंसान बनने की प्रक्रिया
चूसती ही रहेगी पल पल हमारा
पनियल लो-हीमोग्लोबिन वाला खून
तो भी हम जाग उठे हैं सदियों की नींद से,
हमारी ही कमजोरियां बनेगी हमारे अस्त्र,
और अपनी नाकामियों को हम बनायेगे अपनी ढाल
इस बार खून की कमी भी हमें नहीं सुला पायेगी
नकारते हुए संस्कारों की अफीम,
हम निकल पड़े हैं अपने स्वाभिमान के लिए विजययात्रा पर…

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