सोचेंगे कैसे आग पे पानी को छोड़कर / माधव मधुकर

सोचेंगे कैसे आग पे पानी को छोड़कर,
हम देखते हैं चीज़ों को चीज़ों से जोड़कर ।

क्यों ज़िन्दगी का बाग़ न सरसब्ज़ हो सका,
हमने तो दे दिया है लहू तक निचोड़कर ।

कैसा हुआ विकास कि जब आज भी किसान,
तक़ता है आसमान को खेतों को गोड़कर ।

निर्माण किया करते हैं जो रास्ते नए
रख देते हैं वे समय की धारा को मोड़कर ।

भीतर सुलग रहा है जो ज्वालामुखी-सा ज़ब्त,
फूटेगा लावा जल्द ही पत्थर को फोड़कर ।

आँधी के बाद तुम ज़रा बरगद को देखना,
रख देंगी ये हवाएँ कलाई मरोड़कर ।

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