सूने सियाह शहर पे मंज़र-पज़ीर मैं / फ़रहत एहसास

सूने सियाह शहर पे मंज़र-पज़ीर मैं
आँखें क़लील होती हुई और कसीर मैं

मस्जिद की सीढ़ियों पे गदा-गर ख़ुदा का नाम
मस्जिद के बाम ओ दर पे अमीर ओ कबीर मैं

दर-अस्ल इस जहाँ को ज़रूरत नहीं मेरी
हर-चंद इस जहाँ के लिए ना-गुज़ीर मैं

मैं भी यहाँ हूँ उस की शहादत में किस को लाऊँ
मुश्किल ये है के आप हूँ अपनी नज़ीर मैं

मुझ तक है मेरे दुख के तसव्वुफ का सिलसिला
इक ज़ख्म मैं मुरीद तो इक जख़्म पीर मैं

हर ज़ख़्म क़ाफ़िले की गुज़र-गाह मेरा दिल
रू-ए-ज़मीं पे एक लहू की लकीर मैं

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *