सूखे विटप की सारिके ! / रामधारी सिंह “दिनकर”

सूखे विटप की सारिके !
उजड़ी-कटीली डार से
मैं देखता किस प्यार से
पहना नवल पुष्पाभरण
तृण, तरु, लता, वनराजि को
हैं जो रहे विहसित वदन
ऋतुराज मेरे द्वार से।

मुझ में जलन है प्यास है,
रस का नहीं आभास है,
यह देख हँसती वल्लरी
हँसता निखिल आकाश है।
जग तो समझता है यही,
पाषाण में कुछ रस नहीं,
पर, गिरि-हृदय में क्या न
व्याकुल निर्झरों का वास है ?

बाकी अभी रसनाद हो,
पिछली कथा कुछ याद हो,
तो कूक पंचम तान में,
संजीवनी भर गान में,
सूखे विटप की डार को
कर दे हरी करुणामयी
पढ़ दे ऋचा पीयूष की,
उग जाय फिर कोंपल नयी;
जीवन-गगन के दाह में
उड़ चल सजल नीहारिके।
सूखे विटप की सारिके !

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *