सहजता की महिमा / कबीर

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय |
जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय ||

सहज – सहज सब कहते हैं, परन्तु उसे समझते नहीं जिन्होंने सहजरूप से विषय – वासनाओं का परित्याग कर दिया है, उनकी निर्विश्ये – स्थिति ही सहज कहलाती है|

जो कछु आवै सहज में सोई मीठा जान |
कड़वा लगै नीमसा, जामें ऐचातान ||

ऐ बोधवान! जो कुछ सहज में आ जाये उसे मीठा (उत्तम) समझो| जो छीना – झपटी से मिलता है, वे तो विवेकियों को नीम सा कड़वा लगता है|

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय |
पाँचों राखै पारतों, सहज कहावै साय ||

सहज सहक सब कहते हैं परन्तु सहज क्या है इसको नहीं जानते| विषयों में फैली हुई पाँचो ज्ञान इंद्रियों को जो अपने स्वाधीन रखता है, यह इन्द्रियजित अवस्था ही सहज अवस्था है|

सबही भूमि बनारसी, सब निर गंगा होय |
ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय ||

उनके लिए काशी की भूमि या अन्ये भूमि व गंगा नदी या अन्ये नदियां सब बराबर हैं जो ह्रदय को पवित्र बनाकर ज्ञानी स्वरुप राम में स्थित हो गया|

अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप |
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ||

बहुत बरसना भी ठीक नहीं होता है, और बहुत धूप होना भी लाभकर नहीं| इसी प्रकार बहुत बोलना अच्छा नहीं, बिलकुल चुप रहना भी अच्छा नहीं|

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