सन्मति / यतीन्द्र मिश्र

क्या फ़र्क पड़ता है इससे
अयोध्या में पद की जगह कोई सबद गाए
दूर ननकाना साहब में कोई मतवाला
जपुजी छोड़ कव्वाली ले कर जाए

फ़र्क तो इस बात से भी नहीं पड़ता
हम बाला और मरदाना से पूछ सकें
नानक के बोलों पर गुलतराशी करने वाले
इकतारा थामे उन दोनों के हाथ
अकसर सुर छेड़ते वक़्त
खुसरो और कबीर के घर क्यों घूम आते हैं

फ़र्क तो आज यह भी कहीं नहीं दिखता
बात-बात में रदीफ काफ़िया मिलाने वाले
हर चीज़ का फ़र्क पहचानने वाले
शायद ही झगड़ते हों कभी इसलिए
राम की पहुंच डागुरों की हवेली
और खां साहब की बंदिशों तक क्यों है
और क्यों बैजू से लेकर आज तक
बावरी होने वाली कला की
नई से नई पीढी भी
आगे बढकर सबसे पहले
रहीम और रसखान से दोस्ती करती है।

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