राग रामकली / पृष्ठ – ४ / पद / कबीर

तेरा जन एक आध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ बिंबर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥टेक॥
राजस ताँमस सातिग तीन्यूँ, ये सब मेरी माया।
चौथे पद कौं जे जन चीन्हैं, तिनहिं परम पद पाया॥
असतुति निंद्या आसा छाँड़ै, तजै माँन अभिमानाँ।
लोहा कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवानाँ॥
च्यंतै तौ माधौ च्यंतामणि, हरिपद रमैं उदासा।
त्रिस्ना अरु अभिमाँन रहित है, कहै कबीर सो दासा॥184॥
टिप्पणी: ख-जे जन जानैं। लोहा कंचन सँम करि जानै।

हरि नाँमैं दिन जाइ रे जाकौ, सोइ दिन लेखै, लाइ राम ताकौ॥टेक॥
हरि नाम मैं जन जागै, ताकै गोब्यंद साथी आगे॥
दीपक एक अभंगा, तामै सुर नर पड़ै पतंगा।
ऊँच नींच सम सरिया, ताथैं जन कबीर निसतरिया॥185॥

जब थैं आतम तत्त बिचारा।
तब निबर भया सबहिन थैं, काम क्रोध गहि डारा॥टेक॥
ब्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी।
राँणाँ राव कवन सूँ कहिये, कवन बैद को रोगी॥
इनमैं आप आप सबहिन मैं, आप आप सूँ खेलै।
नाँनाँ भाँति घड़े सब भाँड़े, रूप धरे धरि मेलै॥
सोचि बिचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोई न बतावै।
कहै कबीर गुँगी अरु पंडित, मिलि लीला जस गावै॥186॥

तू माया रघुनाथ की, खेलड़ चढ़ी अहेड़े।
चतुर चिकारे चुणि चुणि मारे, कोई न छोड़ा नेड़ै॥टेक॥
मुनियर पीर डिगंबर भारे, जतन करंता जोगी।
जंगल महि के जंगम मारे, तूँरे फिरे बलवंतीं।
वेद पढ़ंता बाँम्हण मारा, सेवा करताँ स्वामी॥
अरथ करंताँ मिसर पछाड़îा, तूँरै फिरे मैमंती।
साषित कैं तू हरता करता, हरि भगतन कै चेरी।
दास कबीर राम कै सग ज्यू लागी त्यूँ तोरी॥187॥
टिप्पणी: ख-तू माया जगनाथ की।

जग सूँ प्रीति न कीजिए, सँमझि मन मेरा।
स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा॥टेक॥
एक कनक अरु कामनी, जग में दोइ फंदा।
इनपै जौ न बँधावई, ताका मैं बंदा॥
देह धरे इन माँहि बास, कहु कैसे छूटै।
सीव भये ते ऊबरे, जीवन ते लूटै॥
एक एक सूँ मिलि रह्या, तिनहीं सचु पाया।
प्रेम मगन लैलीन मन, सो बहुरि न आया॥
कहै कबीर निहचल भया, निरभै पद पाया।
संसा ता दिन का गया, सतगुर समझाया॥188॥

राम मोहि सतगुर मिलै अनेक कलानिधि, परम तस सुखदाई।
काम अगनि तन जरत रही है, हरि रसि छिरकि बुझाई॥टेक॥
दरस परस तैं दुरमति नासी, दीन रटनि ल्यौ आई।
पाषंड भरँम कपाट खोलि कै अनभै कथा सुनाई॥
यहु संसार गँभीर अधिक जल को गहि लावै तीरा।
नाव जिहाज खेवइया साधू, उतरे दास कबीरा॥189॥

दिन दहुँ चहुँ कै कारणै, जैसे सैबल फूले।
झूठी सूँ प्रीति लगाइ करि, साँचे कूँ भूले॥टेक॥
जो रस गा सो परहर्‌या, बिडराता प्यारे।
आसति कहूँ न देखिहूँ, बिन नाँव तुम्हारे॥
साँची सगाई राम की, सुनि आतम मेरे।
नरकि पड़े नर बापुड़े गाहक जस तेरे॥
हंस उड़îा चित चालिया, सगपन कछू नाहीं।
माटी सूँ माटी मेलि करि, पीछैं अनखाँहीं॥
कहै कबीर जग अधला, कोई जन सारा।
जिनि हरि मरण न जाँणिया, तिनि किया पसारा॥190॥

माधौ मैं ऐसा अपराधी, तेरी भगति होत नहीं साधी॥टेक॥
कारनि कवन जाइ जग जनम्याँ, जनमि कवन सचु पाया।
भौ जल तिरण चरण च्यंतामणि, ता चित घड़ी न लाया॥
पर निंद्या पर धन पर दारा, पर अपवादैं सूरा।
ताथैं आवागवन होइ फुनि फुनि, तां पर संग न चूरा॥
काम क्रोध माया मद मंछर, ए संतति हम माँही।
दया धरम ग्यान गुर सेवा, ए प्रभु सुपिनै नाँहीं॥
तुम्ह कृपाल दयाल दमादर, भगत बछल भौ हारो।
कहै कबीर धीर मति राखहु, सासति करौं हमारी॥191॥
टिप्पणी: ख-सो गति करहु हमारी।

राम राइ कासनि करौं पुकारा, ऐसे तुम्ह साहित जाननिहारा॥टेक॥
इंद्री सबल निबल मैं माधौ, बहुत करै बरियाई।
लै धरि जाँहि तहाँ दुख पइये बुधि बल कछू न बसाई॥
मैं बपरौ का अलप मूढ़ मति, कहा भयो जे लूटे।
मुनि जन सती सिध अरु साधिक तेऊ न आपैं छूटे॥
जोगी जती तपा संन्यासी, अह निसि खोजैं काया।
मैं मेरी करि बहुत बिगूते, बिषै बाघ जग खाया॥
ऐकत छाँड़ि जाँहिं घर घरनी, तिन भी बहुत उपाया।
कहै कबीर कछु समझि न पाई, विषम तुम्हारी माया॥192॥

माधो चले बुनाँवन माहा, जग जीतै जाइ जुलाहा॥टेक॥
नव गज दस गज उननींसा, पुरिया एक तनाई।
सान सूत दे गंड बहुतरि, पाट लगी अधिकाई॥
तुलह न तोली गजह न मापी, पहज न सेर अढ़ाई।
अढ़ाई में जैं पाव घटे तो करकस करैं बजाई॥
दिन की बैठि खमस सूँ कीजै अरज लगी तहाँ ही।
भागी पुरिया घर ही छाड़ी चले जुलाह रिसाई॥
छोछी नली काँमि नहीं आवै, लहटि रही उरझाई।
छाँड़ि पसारा राम कहि बारै, कहै कबीर समझाई॥193॥

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *