राग रामकली / पृष्ठ – ३ / पद / कबीर

अवधू अगनि जरै कै काठ।
पूछौ पंडित जोग संन्यासी, सतगुर चीन्है बाट॥टेक॥
अगनि पवन मैं पवन कबन मैं, सबद गगन के पवाँन।
निराकार प्रभु आदि निरंजन, कत रवंते भवनाँ॥
उतपति जाति कवन अँधियारा, धन बादल का बरिषा।
प्रगट्यो बीच धरनि अति अधिकै, पारब्रह्म नहीं देखा॥
मरनाँ मरै न मरि सकै, मरनाँ दूरि न नेरा।
द्वादश द्वादस सनमुख देखैं, आपैं आप अकेला॥
जे बाँध्या ते छुछंद मृकुता, बाँधनहारा बाँध्या।
जे जाता ते कौंण पठाता, रहता ते किनि राख्या॥
अमृत समाँनाँ बिष मैं जानाँ, बिष मैं अमृत चाख्या॥
कहै कबीर बिचार बिचारी, तिल मैं मेर समाँनाँ।
अनेक जनम का गुर गुर करता, सतगुर तब भेटाँनाँ॥174॥

अवधू ऐसा ग्यान बिचार,
भेरैं चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं॥टेक॥
ऊघट चले सु नगरि पहुँचे, बाट चले ते लूटे।
एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे॥
मंदिर पैसि च्हूँ दिसि भीगे, बाहरि रे ते सूका।
सरि मारे ते सदा सुखारे, अनमारे ते दूषा॥
बिन नैनन के सब जग देखै, लोचन अछते अंधा।
कहै कबीर कछु समछि परी है, यहु जग देख्या धंधा॥175॥

जन धंधा रे जग धंधा, सब लोगनि जाँणै अंधा।
लोभ मोह जेवड़ी लपटानी बिनहीं गाँठि गह्यो फंदा॥टेक॥
ऊँचे टीबे मंद बसत है, ससा बसे जल माँहीं।
परबत ऊपरि डूबि मूवा नर मूवा धूँ काँही॥
जलै नीर तिण षड़ उबरै, बैसंदर ले सींचै।
ऊपरि मूल फूल बिन भीतरि, जिनि जान्यौ तिनि नीकै॥
कहै कबीर जाँनहीं जाँनै, अनजानत दुख भारी।
हारी बाट बटाऊ जीत्या, जानत की बलिहारी॥176॥

अवधू ब्रह्म मतै घरि जाइ,
काल्हि जू तेरी बँसरिया छीनी कहा चरावै गाइ॥टेक॥
तालि चुगें बन सीतर लउवा, पवति चरै सौरा मछा।
बन की हिरनी कूवै बियानी, ससा फिरे अकासा॥
ऊँट मारि मैं चारै लावा, हस्ती तरंडबा देई।
बबूर की डरियाँ बनसी लैहूँ, सींयरा भूँकि भूँकि षाई॥
आँब क बौरे चरहल करहल, निबिया छोलि छोलि खाई।
मोरै आग निदाष दरी बल, कहै कबीर समझाई॥177॥

कहा करौं कैसे तिरौं, भौ जल अति भारी।
तुम्ह सरणागति केसवा राखि राखि मुरारी॥टेक॥
घर तजि बन खंडि जाइए, खनि खनि खइए कंदा।
बिषै बिकार न छूटई, ऐसा मन गंदा॥
बिष विषिया कौ बाँसनाँ, तजौं तजी नहीं जाई।
अनेक जतन करि सुरझिहौं, फुनि फुनि उरझाई॥
जीव अछित जोबन गया, कछु कीया न नीका।
यहु हीरा निरमोलिका, कौड़ी पर बीका॥
कहै कबीर सुनि केसवा, तूँ सकल बियापी।
तुम्ह समाँनि दाता नहीं, हँम से नहीं पापी॥178॥

बाबा करहु कृपा जन मारगि, लावो ज्यूँ भव बंधन षूटै।
जरा मरन दुख फेरि करँन सुख, जीव जनम यैं छूटै॥टेक॥
सतगुरु चरन लागि यों बिनऊँ, जीवनि कहाँ थैं पाई।
जा कारनि हम उपजैं बिनसै क्यूँ न कहौ समझाई॥
आसा पास षंड नहीं पाँडे, यौं मन सुंनि न लूटै।
आपा पर आनंद न बूझै, बिन अनभै क्यूँ छूटै॥
कह्याँ न उपजै नहीं जाणै, भाव अभाव बिहूनाँ
उदै अस्त जहाँ मति बुधि नाहीं, सहजि राम ल्यौ लीनाँ॥
ज्यूँ बिंबहि प्रतिबिंब समाँनाँ, उदिक कुंभ बिगराँनाँ।
कहै कबीर जाँनि भ्रम भागा, जीवहिं जीव समाँनाँ॥179॥

संत धोखा कासूँ कहिए।
गुँण मैं निरगुँण निरगुँण मैं गुण है, बाट छाँड़ि क्यूँ बहिए॥टेक॥
अजरा अमर कथैं सब कोई, अला न कथणाँ जाई।
नाति सरूप बरण नहीं जाकै, घटि घटि रह्यौ समाई॥
प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई, वाकै आदि अरु अंत न होई।
प्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जे कथिए, कहैं कबीर हरि सोई॥180॥

पषा पषी कै पेषणै, सब जगत भुलानाँ,
निरपष टोइ हरि भजै, सो साथ सयाँनाँ॥टेक॥
ज्यूँ पर सूँ षर बँधिया, यूँ बँधे सब लाई।
जाकै आत्मद्रिष्टि है, साचा जन सोई॥
एक एक जिनि जाणियाँ, तिनहीं सच पाया।
प्रेम प्रीति ल्यौ लीन मन, ते बहुरि न आया॥
पूरे की पूरी द्रिष्टि, पूरा करि देखै।
कहै कबीर कछू समूझि न परई, या ककू बात अलेखै॥181॥

अजहूँ न संक्या गई तुम्हारी, नाँहि निसंक मिले बनवारी॥टेक॥
बहुत गरब गरबे संन्यासी, ब्रह्मचरित छूटी नहीं पासी।
सुद्र मलैछ बसैं मन माँहीं, आतमराम सु चीन्हा नाहीं॥
संक्या डाँइणि बसै सरीरा, ता करणि राम रमैं कबीरा॥182॥

सब भूले हो पाषंडि रहे, तेरा बिरला जन कोई राम कहै॥टेक॥
होइ आरोगि बूँटी घसि लावै, गुर बिना जैसे भ्रमत फिरै।
है हाजिर परतीति न आवै, सो कैसैं परताप धरै॥
ज्यूँ सुख त्यूँ दुख द्रिढ़ मन राखै एकादसी एकतार करै।
द्वादसी भ्रमैं लष चौरासी, गर्भ बास आवै सदा मरै।
सैं तैं तजै तजैं अपमारग, चारि बरन उपराति चढ़ै।
ते नहीं डूबै पार तिरि लंघै, निरगुण मिटै धापै॥
तिनह उछाह सोक नहीं ब्यापै, कहै कबीर करता आपै॥183॥

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