राग भैरूँ / पृष्ठ – ४ / पद / कबीर

ताथैं, कहिये लोकोचार,
बेद कतेब कथैं ब्योहार॥टेक॥
जारि बारि करि आवै देहा, मूंवां पीछै प्रीति सनेहा।
जीवन पित्राहि गारहि डंगा, मूंवां पित्रा ले घालैं गंगा॥
जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावै, मूंवां पीछे ष्यंड भरावै॥
जीवत पित्रा कूँ बोलै अपराध, मूंवां पीछे देहि सराध॥
कहि कबीर मोहि अचिरज आवै, कउवा खाइ पित्रा क्यूँ पावै॥356॥

बाप राम सुनि बीनती मोरी, तुम्ह सूँ प्रगट लोगन सूँ चोरी॥टेक॥
पहलै काम मुगध मति कीया, ता भै कंपै मेरा जीया।
राम राइ मेरा कह्या सुनीजै, पहले बकसि अब लेखा लीजै॥
कहै कबीर बाप राम राया, कबहुं सरनि तुम्हारी आया॥357॥

अजहूँ बीच कैसे दरसन तोरा,
बिन दरसन मन मांनै, क्यूँ मोरा॥टेक॥
हमहिं कुसेवग क्या तुम्हहिं अजांनां, दुइ मैं दोस कहौ किन रांमां।
तुम्ह कहियत त्रिभवन पति राजा, मन बंछित सब पुरवन काजा॥
कहै कबीर हरि दरस दिखावौ, हमहिं बुलावौ कै तुम्ह चलि आवौ॥358॥

क्यूँ लीजै गड़ बंका आई, दोवग काट अरू तेवड़ खाई॥टेक॥
काम किवाड़ दुख सुख दरवानी, पाप पुंनि दरवाजा।
क्रोध प्रधान लोभ बड़ दुंदर, मन मैं बासी राजा॥
स्वाद सनाह टोप ममिता का, कुबधि कामांण चढ़ाई।
त्रिसना तीर रहे तन भीतरि, सुबधि हाथि नहीं आई।
प्रेम पलीता सुरति नालि करि, गोला ग्यान चलाया।
ब्रह्म अग्नि ले दियां पलीता, एकैं चोट ढहाया।
सत संतोष लै लरनै लागे, तोरै दस दरवाजा॥
साध संगति अरु गुर की कृपा थैं, पकरो गढ़ को राजा।
भगवंत शीर सकति सुमिरण की, काटि काल की पासी।
दास कबीर चढ़े गढ़ ऊपरि, राज दियौ अबिनासी॥359॥

रैनि गई मति दिन भी जाइ,
भवर उड़े बन बैठे आइ॥टेक॥
कांचै करवै रहै न पानी, हंस उड़ा काया कुमिलांनी।
थरहर थरहर कंपै जीव, नां जांनूं का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहिंयां पिरांनी, कहै कबीर मेरी कथा सिरांनी।॥360॥

काहे कूँ बनाऊँ परिहै टाटी,
का जांनूं कहाँ परिहै माटी॥टेक॥
काहे कूँ मंदिर महल चिणांऊँ, मुवां पीछै घड़ी एक रहण न पाऊँ॥
कहो कूँ छाऊँ ऊँच ऊँचेरा, साढ़े तीनि हाथ घर मेरा॥
कहै कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भुंइ लीजै॥361॥

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