राग भैरूँ / पृष्ठ – ३ / पद / कबीर

क्या ह्नै तेरे न्हाई धाँई, आतम रांम न चीन्हा सोंई॥टेक॥
क्या घट उपरि मंजन कीयै, भीतरि मैल अपारा॥
राम नाम बिन नरक न छूटै, जे धोवै सौ बारा॥
का नट भेष भगवां बस्तर, भसम लगावै लोई।
ज्यूँ दादुर सुरसरी जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई॥
परिहरि काम राम कहि बौरे सुनि सिख बंधू मोरी।
हरि कौ नांव अभयपददाता कहै कबीरा कोरी॥346॥

पांणी थे प्रकट भई चतुराई गुर प्रसादि परम निधि पाई॥टेक॥
इक पांणी वांणी कूँ धोवै एक पांणी पांणी कूँ मोहै।
पांणी ऊँचा पांणी नीचां, ता पांणी का लीजै सींचा॥
इसके पांणी थैं प्यंड उपाया, दास कबीर राम गुण गाया॥347॥

भजि गोब्यंद भूमि जिनि जाहु, मनिषा जनम कौ एही लाहु॥टेक॥
गुर सेवा करि भगति कमाई, जौ तै मनिषा देही पाई।
या देही कूँ लौचै देवा, सो देही करि हरि कि सेवा॥
जब लग जरा रोग नहीं आया, तब लग काल ग्रसै नहिं काया।
जब लग हींण पड़े नहीं वाणीं, तब लग भजि मन सांरंगपाणीं॥
अब नहीं भजसि भजसि कब भाई, आवेगा अंत भज्यौ जाई॥
जे कछू करौ सोई तत सार फिरि पछितावोगे बार न पार॥
सेवग सो जो लागे सेवा, तिनहीं पाया निरंजन देवा।
गुर मिलि जिनि के खुले कपाट, बहुरि न आवै जोनी बाट॥
यहु तेरा औसर यहु तरि बार, घट ही भीतरि सोचि बिचारि।
कहै कबीर जीति भावै हारि बहु बिधि कह्यौ पुकारि पुकारि॥348॥

ऐसा ज्ञान बिचारि रे मनां, हरि किन सुमिरै दुख भंजना॥टेक॥
जब लग मैं में मेरी करै, तब लग काज एक नहीं सरै।
जब यहु मैं मेरी मिटि जाइ, तब हरि काज सँवारै आइ।
जब स्यंध रहै बन मांहि, तब लग यहु बन फूलै नांहि।
उलटि स्याल स्यंध कूँ खाइ, तब यहु फूलै सब बनराई॥
जीत्या डूबै हार्‌या तिरै, गुर प्रसाद जीवत ही मरै।
दास कबीर कहै समझाइ, केवल राम रहौ ल्यो लाइ॥349॥

जागि रे जीव जागि रे।
चोरन को डर बात कहत हैं, उठि उठि पहरै लागि रे॥टेक॥
ररा करि टोप समां करि बखतर, ग्यान रतन करि ताग रे।
ऐसै जौ अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे॥
ऐसी जागणी जे को जागै, तौ हरि देइ सुहाग रे।
कहै कबीर जग्या ही चाहिए, क्या गृह क्या बैराग रे॥350॥

जागहु रे नर सोवहु कहा,
जम बटपारै रूँधे पहा॥टेक॥
जागि थेति कछू करौ उपाई, मोआ बैरी है जमराई।
सेत काग आये बन मांहि, अजहु रे नर चेतै नांहि॥
कहै कबीर तबै नर जागै, जंम का डंड मूंड मैं लागै॥351॥

जाग्या रे नर नींद नसाई,
चित चेत्यो च्यंतामणि पाई॥टेक॥
सोवत सोवत बहुत दिन बीते, जन जाग्या तसकर गये रीते।
जन जागे का ऐमहि नांण, बिष से लागे वेद पुराण।
कहै कबीर अब सोवो नांहि, राम रतन पाया घट मांहि॥352॥

संतनि एक अहेरा लाधा, मिर्गनि खेत सबति का खाधा॥टेक॥
या जंगल मैं पाँचौ मृगा, एई खेत सबनि का चरिगा।
पाराधीपनौ जे साधै कोई, अध खाधा सा राखै सोई॥
कहै कबीर जो पंचौ मारै, आप तिरै और कूं तारै॥353॥

हरि कौ बिलोवनो विलोइ मेरी माई,
ऐसै बिलोइ जैसे तत न जाई॥टेक॥
तन करि मटकी मननि बिलोइ, ता मटकी मैं पवन समोइ।
इला पयंगुला सुषमन नारी, बेगि विलोइ ठाढी छलिहारी॥
कहै कबीर गुजरी बौरांनी, मटकी फूटी जोतिं समानी॥354॥

आसण पवन कियै दिढ़ रहु रे,
मन का मैल छाड़ि दे बौरे॥टेक॥
क्या सींगी मुद्रा चमकाये, क्या बिभूति सब अंगि लगाये॥
सो हिंदू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहै ईमांन॥
सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्म गियान, काजी सो जानै रहिमान॥
कहै कबीर कछू आन न कीजै, राम नाम जपि लाहा दीजै॥355॥

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *