राग गौड़ी / पृष्ठ – ७ / पद / कबीर

पढ़ि ले काजी बंग निवाजा, एक मसीति दसौं दरवाजा॥टेक॥
मन करि मका कबिला करि देही, बोलनहार जगत गुर येही॥
उहाँ न दोजग भिस्त मुकाँमाँ, इहाँ ही राँम इहाँ रहिमाँनाँ॥
बिसमल ताँमस भरम कै दूरी, पंचूँ भयि ज्यूँ होइ सबूरी॥
कहै कबीर मैं भया दीवाँनाँ, मनवाँ मुसि मुसि सहजि समानाँ॥61॥
टिप्पणी: ख-मन करि मका कबिला कर देही।
राजी समझि राह गति येही॥

मुलाँ कर ल्यौ न्याव खुदाई, इहि बिधि जीव का भरम न जाई॥टेक॥
सरजी आँनैं देह बिनासै, माटी बिसमल कींता।
जोति सरूपी हाथि न आया, कहौ हलाल क्या कीता॥
बेद कतेब कहौ क्यूँ झूठा, झूठा जोनि बिचारै।
सब घटि एक एक करि जाँनैं, भौं दूजा करि मारै॥
कुकड़ी मारै बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।
सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै॥
दिल नहीं पाक पाक नहीं चीन्हाँ, उसदा षोजन जाँनाँ।
कहै कबीर भिसति छिटकाई, दोजग ही मन माँनाँ॥62॥
टिप्पणी: ख-उसका खोज न जाँनाँ।

या करीम बलि हिकमति तेरी। खाक एक सूरति बहु तेरी॥टेक॥
अर्थ गगन में नीर जमाया, बहुत भाँति करि नूरनि पाया॥
अवलि आदम पीर मुलाँनाँ, तेरी सिफति करि भये दिवाँनाँ॥
कहै कबीर यहु हत बिचारा, या रब या रब यार हमाराँ॥63॥

काहे री नलनी तूँ कुम्हिलाँनीं, तेरे ही नालि सरोवर पाँनी॥टेक॥
जल मैं उतपति जल में बास, जल में नलनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहैं कबीर से उदिक समान, ते नहीं मूए हँमरे जाँन॥64॥

इब तूँ हास प्रभु में कुछ नाँहीं, पंडित पढ़ि अभिमाँन नसाँहीं॥टेक॥
मैं मैं मैं जब लग मैं कीन्हा, तब लग मैं करता नहीं चीन्हाँ।
कहै कबीर सुनहु नरनाहा, नाँ हम जीवत न मूँवाले माहाँ॥65॥

अब का डरौं डर डरहि समाँनाँ, जब थैं मोर तोर पहिचाँनाँ॥टेक॥
जब लग मोर तोर करि लीन्हां, भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हा॥
अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवाँ मन माँहि समाना॥
जब लग ऊँच नीच कर जाँनाँ, ते पसुवा भूले भ्रँम नाँनाँ।
कहि कबीर मैं मेरी खोई, बहि राँम अवर नहीं कोई॥66॥

बोलनाँ का कहिये रे माई बोलत बोलत तत नसाई॥टेक॥
बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिन बोल्याँ क्यूँ होइ बिचारा॥
संत मिलै कछु कहिये कहिये, मिलै असंत पुष्टि करि रहिये॥
ग्याँनी सूँ बोल्या हितकारी, मूरिख सूँ बोल्याँ झष मारी॥
कहै कबीर आधा घट डोलै, भर्या होइ तौ मुषाँ न बोलै॥67॥

बागड़ देस लूचन का घर है, तहाँ जिनि जाइ दाझन का डर है॥टेक॥
सब जग देखौं कोई न धीरा, परत धूरि सिरि कहत अबीरा॥
न तहाँ तरवर न तहाँ पाँणी, न तहाँ सतगुर साधू बाँणी॥
न तहाँ कोकिला न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि चढ़ि हंसा मूवा॥
देश मालवा गहर गंभीर डग डग रोटी पग पग नीर॥
कहैं कबीर घरहीं मन मानाँ, गूँगै का गुड़ गूँगै जानाँ॥68॥

अवधू जोगी जग थैं न्यारा; मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा॥टेक॥
बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥
परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।
सहँस इकीस छ सै धागा, निहचल नाकै पीवै॥
ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥69॥

अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै॥टेक॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥70॥

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