राग गौड़ी / पृष्ठ – ५ / पद / कबीर

जौ पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डाँड़ि किन सारै॥टेक॥
उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, जो धरी अरु लागी माया।
नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।
जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँन वाँट ह्नै काहे न आया।
जे तूँ तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई, सौ मधिम जा मुखि राम न होई ॥41॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
काहे कौ कीजै पाँडे छोति बिचारा।
छोतिहीं तै उपना सब संसारा॥टेक॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध।
तुम्ह कैसे बाँह्मण पाँडे हम कैसे सूद॥
छोति छोति करता तुम्हहीं जाए।
तौ ग्रभवास काहें कौं आए॥
जनमत छोत मरत ही छोति।
कहै कबीर हरि की बिमल जोति॥42॥

कथता बकता सुनता सोई, आप बिचारै सो ग्यानी होई ॥टेक॥
जैसे अगनि पवन का मेला, चंचल बुधि का खेला।
नव दरवाजे दसूँ दुवार,प बूझि रे ग्यानी ग्यान विचार॥
देहौ माटी बोलै पवनाँ, बूझि रे ज्ञानी मूवा स कौनाँ।
मुई सुरति बाद अहंकार, वह न मूवा जो बोलणहार॥
जिस कारनि तटि तीरथि जाँहीं, रतन पदारथ घटहीं माहीं।
पढ़ि पढ़ि पंडित बेद बषाँणै, भीतरि हूती बसत न जाँणै॥
हूँ न मूवा मेरी मुई बलाइ, सो न मुवा जौ रह्मा समाइ।
कहै कबीर गुरु ब्रह्म दिखाया, मरता जाता नजरि न आया ॥42॥

हम न मरैं मरिहैं संसारा, हँम कूँ मिल्या जियावनहारा ॥टेक॥
अब न मरौ मरनै मन माँना, ते मूए जिनि राम न जाँना।
साकत मरै संत जन जीवै, भरि भरि राम रसाइन पीवै ॥
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं, हरि न मरै हँम काहे कूँ मरिहैं।
कहै कबीर मन मनहि मिलावा, अमर भये सुख सागर पावा ॥43॥

कौन मरै कौन जनमै आई, सरग नरक कौने गति पाई ॥टेक॥
पंचतत अतिगत थैं उतपनाँ एकै किया निवासा।
बिछूरे तत फिरि सहज समाँनाँ, रेख रही नहीं आसा ॥
जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समानाँ, यह तत कथौ गियानी ॥
आदै गगनाँ अंतै गगनाँ मधे गगनाँ माई।
कहै कबीर करम किस लागै, झूठी संक उपाई ॥44॥

कौन मरै कहू पंडित जनाँ, सो समझाइ कहौ हम सनाँ ॥टेक॥
माटी माटी रही समाइ, पवनै पवन लिया सँग लाइ ॥
कहै कबीर सुंनि पंडित गुनी, रूप मूवा सब देखै दुनी ॥45॥

जे को मरै मरन है मीठा, गुरु प्रसादि जिनहीं मरि दीठा ॥टेक॥
मुवा करता मुई ज करनी, मुई नारि सुरति बहु धरनी।
मूवा आपा मूवा माँन, परपंच लेइ मूवा अभिमाँन ॥
राम रमे रमि जे जन मूवा, कहै कबीर अविनासी हुआ ॥46॥

जस तूँ तस तोहि कोइ न जान, लोग कहै सब आनहिं आँन ॥टेक॥
चारि बेद चहुँ मत का बिचार इहि भ्रँमि भूलि परो संसार।
सुरति सुमृति दोइ कौ बिसवास, बाझि परौं सब आसा पास॥
ब्रह्मादिक सनाकादिक सुर नर, मैं बपुरो धूँका मैं का कर।
जिहि तुम्ह तारौ सोई पै तिरई, कहै कबीर नाँतर बाँध्यौ मरई ॥47॥

लोका तुम्ह ज कहत हौ नंद कौ, नंदन नंद कहौ धुं काकौ रे।
धरनि अकास दोऊ नहीं होते, तब यहु नंद कहाँ थौ रे ॥टेक॥
जाँमैं मरै न सँकुटि आवै, नाँव निरंजन जाकौ रे।
अबिनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे ॥
लष चौरासी जीव जंत मैं भ्रमत नंदी थाकौ रे।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसो, भगति करै हरि ताकौ रे ॥48॥

निरगुण राँम निरगुण राँम जपहु रे भाई, अबिगति की गति लखी न जाई ॥टेक॥
चारि बेद जाको सुमृत पुराँनाँ नौ ब्याकरनाँ मरम न जाँनाँ ॥
चारि बेद जाकै गरड समाँनाँ, चरन कवल कँवला नहीं जाँनाँ ॥
कहै कबीर जाकै भेदै नाँहीं, निज जन बैठे हरि की छाहीं ॥49॥

मैं सबनि मैं औरनि मैं हूँ सब।
मेरी बिलगि बिलगि बिलगाई हो,
कोई कहो कबीर कहो राँम राई हो ॥टेक॥
नाँ हम बार बूढ़ नाही, हम ना हमरै चिलकाई हो।
पठए न जाऊँ अरवा नहीं आऊँ सहजि रहूँ हरिआई हो ॥
वोढन हमरे एक पछेवरा, लोक बोलै इकताई हो ॥
जुलहे तनि बुनि पाँनि न पावल, फार बुनि दस ठाँई हो ॥
त्रिगुँण रहित फल रमि हम राखल, तब हमारौ नाउँ राँम राई हो ॥
जग मैं देखौं जग न देखै मोहि, इहि कबीर कछु पाई हो ॥50॥
टिप्पणी: ख-ना हम बार बूढ़ पुनि नाँही।

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