राग गौड़ी / पृष्ठ – ११ / पद / कबीर

माया का रस षाण न पावा, तह लग जम बिलवा ह्नै धावा॥टेक॥
अनेक जतन करि गाड़ि दुराई, काहू साँची काहू खाई॥
तिल तिल करि यहु माया जोरी, चलति बेर तिणाँ ज्यूँ तासी॥
कहै कबीर हूँ ताँका दास, माया माँहैं रहैं उदास॥101॥

मेरी मेरी दुनिया करते, मोह मछर तन धरते,
आगै पीर मुकदम होते, वै भी गये यौं करते॥टेक॥
जिसकी ममा चचा पुनि किसका, किसका पंगड़ा जोई॥
यहु संसार बजार मंड्या है, जानैगा जग कोई॥
मैं परदेसी काहि पुकारौं, इहाँ नहीं को मेरा॥
यहु संसार ढूँढ़ि सब देख्या, एक भरोसा तेरा॥
खाँह हलाल हराँम निवारै, भिस्त भिस्त तिनहू कौं होई॥
पंच तत का भरम न जानै दो जगि पड़िहै सोई॥
कुटुंब कारणि पाप कमावै, तू जाँणै घर मेरा॥
ए सब मिले आप सवारथ, इहाँ नहीं को तेरा॥
सायर उतरौ पंथ सँवारौ, बुरा न किसी का करणाँ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, ज्वाब खसम कूँ भरणा॥102॥
टिप्पणी: ख-मेरी मेरी सब जग करता।

रे यामै क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहि कहत घर मेरा॥टेक॥
चारि पहर निस भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा॥
जैसैं बनियें हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥
ये ले जारे वै ले गाड़े, इनि दुखिइनि दोऊ घर छाड़े॥
कहउ कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह बिनसि रहैगा सोई॥103॥

नर जाँणै अमर मेरो काया, घर घर बात दुपहरी छाया॥टेक॥
मारग छाड़ि कुमारग जीवै, आपण मरैं और कूँ रोवै॥
कछू एक किया एक करणा, मुगध न चेतै निहचै मरणाँ॥
ज्यूँ जल बूँद तैसा संसारा उपजत, बिनसत लागै न बारा॥
पंच पँषुरिया एक सरीरा, कृष्ण केवल दल भवर कबीरा॥104॥
टिप्पणी: ख-मुगध न देखे॥

मन रे अहरषि बाद न कीजै, अपनाँ सुकृत भरि भरि लीजै॥टेक॥
कुँभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगाति बणाई॥
एकनि मैं मुक्ताहल मोती, एकनि ब्याधि लगाई॥
एकनि दीना पाट पटंबर एकनि सेज निवारा॥
एकनि दोनों गरै कुदरी, एकनि सेज पयारा॥
साची रही सूँम की संपति, मुगध कहै यहु मेरी॥
अंत काल जब आइ पहुंचा, छिन में कीन्ह न बेरी॥
कहत कबीर सुनौ रे संतो, मेरी मेरी सब झूठी॥
चड़ा चौथा चूहड़ा ले गया तणी तणगती टूटी॥105॥

हड़ हड़ हड़ हड़ हसती है, दीवाँनपनाँ क्या करती है।
आड़ी तिरछी फिरती है, क्या च्यौं च्यौं म्यौं म्यौं करती है॥
क्या तूँ रंगी क्या तूँ चंगी, क्या सुख लौड़ै कीन्हाँ॥
मीर मुकदम सेर दिवाँनी, जंगल केर षजीना।
भूले भरमि कहा तुम्ह राते, क्या मदुमाते माया॥
राम रंगि सदा मतिवाले, काया होइ निकाया॥
कहत कबीर सुहाग सुंदरी, हरि भजि ह्नै निस्तारा॥
सारा षलक खराब किया है, माँनस कहा बिचारा॥106॥

हरि के नाँइ गहर जिनि करऊँ, राम नाम चित मूखा न धरऊँ॥टेक॥
जैसे सती तजै संसारा, ऐसै जियरा करम निवारा॥
राग दोष दहूँ मैं एक न भाषि, कदाचि ऊपजै चिता न राषि॥
भूले विसरय गहर जौ होई, कहै कबीर क्या करिहौ मोहि॥107॥

मन रे कागज कोर पराया, कहा भयौ ब्यौपार तुम्हारै, कल तर बढ़े सवाया॥टेक॥
बड़े बौहरे साँठी दीन्हौ कलतर काढ़ो खोटै॥
चार लाख अरु असी ठीक दे जनम लिष्यो सब चोटै॥
अबकी बेर न कागद कीरौं, तौ धर्म राई सूँ तूटै॥
पूँजी बितड़ि बांदे ले दैहै, तब कहै कौन के छूटै॥
गुरुदेव ग्याँनी भयौ लगनियाँ, सुमिरन दीन्हौ हीरा॥
बड़ी निसरना नाव राम कौ, चढ़ि गयौ कीर कबीरा॥108॥

धागा ज्यूँ टूटै त्यूँ जोरि, तूटै तूटनि होयगी, नाँ ऊँ मिलै बहोरि॥टेक॥
उरझा सूत पाँन नहीं लागै, कूच फिरे सब लाई।
छिटकै पवन तार जब छूटै, तब मेरौ कहा बसाई॥
सुरझ्यौ सूत गुढ़ी सब भागी, पवन राखि मन धीरा॥
पचूँ भईया भये सनमुखा, तब यहु पान करीला॥
नाँन्हीं मैदा पीसि लई है, छाँणि लई द्वै बारा॥
कहै कबीर तेल जब मेल्या, बुतत न लागी बारा॥109॥

ऐसा औसरि बहुरि न आवै, राम मिलै पूरा जन पावै॥टेक॥
जनम अनेक गया अरु आया, की बेगरि न भाड़ा पाया॥
भेष अनेक एकधूँ कैसा, नाँनाँ रूप धरै नट जैसा॥
दाँन एक माँगों कवलाकंत, कबीर के दुख हरन अनंत॥110॥

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